भौतिकवाद
by A Nagraj
गठनपूर्णता के अनन्तर परमाणु अपनी गति में होता है जो स्वयं में एक गति पथ को स्थापित करता है। जबकि जड़ परमाणु में परमाणु अंशों का गतिपथ स्वयं उसके गठन को गठनपूर्णता पर्यन्त प्रकाशित करता है। गठनपूर्णता के अनन्तर परणामु अंशों के गतिपथ सहित परमाणु अपनी विशालता को प्रकाशित करने के क्रम में एक पुर्नगतिपथ की स्थापना करता है जो स्वयं में एक पुंजाकर होता है। जैसे एक रस्सी के छोर में आग लगाकर घुमाने से एक अलातचक्र दिखाई पड़ता है, वैसा ही गठनपूर्ण परमाणु जितने स्थान पर अपना गति चक्र बना लेता है, वह एक पुंज रूप में प्रकाशित होता हैं। ऐसी चैतन्य इकाई अर्थात् गठनपूर्णता प्राप्त परमाणु में ये विशेषताएँ है कि वह अक्षय बल और अक्षय शक्ति संपन्न होता है।
अक्षय शक्ति और बल संपन्नता का तात्पर्य यह है कि गठनपूर्णता के अनन्तर परमाणु में अमरत्व सिद्घ होने के फलस्वरुप उसमें श्रम और गति दोनों अक्षय हो जाती हैं। यही स्वाभाविक स्थिति हैं। इसी सत्यावश गठनपूर्ण परमाणु में अभिव्यक्त होने वाले पाँचों बल पाँचों शक्तियाँ अक्षय सिद्घ होती हैं। अक्षयता का अर्थ है - क्षय न होना, अक्षुण्ण होना।
चैतन्य प्रकृति के कार्यकलापों में इस अक्षयता का साक्ष्य सिद्घ होता है। आशा और विचार को देखें तो कितनी ही आशाओं और विचारों का उपयोग करने पर वे किसी भी प्रकार घटती नहीं है। इसके विपरीत यह देखने को मिलता है कि आशा और विचारों का उपयोग सन्निकर्ष और नियोजन के रूप में करते-करते उनकी प्रखरता और श्रेष्ठता उजागर होती जाती है। आशा जब किसी वस्तु का चयन करती है अर्थात् उसमें आस्वादनीयता को पहचानती है, तब चयन क्रिया में प्रवृत्त होती हैं। आस्वादनीयता को जब तक आशा पहचानती नहीं तब तक चयन करने की क्रिया प्रमाणित नहीं होती। आशायें कितनी भी दूर तक और पास तक क्रियाशील रहती हैं। वहाँ तक संपूर्ण क्रियायें आस्वादन को पहचानने के आधार पर ही स्पष्ट है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जड़ प्रकृति में आस्वादन की पहचान जो प्रकाशित नहीं हो पाती थी वह चैतन्य प्रकृति में सर्वप्रथम प्रकाशित हुई। चैतन्य-प्रकृति में मनोबल, आशा शक्ति के रूप में स्वयं को प्रकाशित करता हैं। वे चयन और आस्वादन की क्रियायें हैं। मनोबल, चैतन्य प्रकृति जीवन अथवा चैतन्य इकाई का एक अविभाज्य वर्तमान है। चैतन्य इकाई से पाँचों बल