भौतिकवाद
by A Nagraj
और पाँचों शक्तियों को अलग करके देखा नहीं जा सकता। इसी प्रकार जड़ प्रकृति तथा परमाणु में भी पाँच बल अविभाज्य वर्तमान है।
चैतन्य प्रकृति अर्थात् चैतन्य इकाई का दूसरा बल वृत्ति बल है। इसकी शक्तियाँ विचार और तुलन के रूप में प्रभावशील होती है । तीसरा बल चित्त बल = इच्छा शक्ति है जिसकी बल एवम् शक्तियाँ चिन्तन और चित्रण के रूप में प्रभावशील होती है । चौथा बल बुद्घि बल है जिसकी बल एवं शक्तियाँ बोध और संकल्प के रूप में प्रभावशील होती हैं। पाँचवां बल आत्मबल है जिसकी बल एवं शक्तियाँ अनुभव एवं प्रामाणिकता और व्यवहार में समाधान के रूप में हैं।
आत्मबल, स्वभावत: अनुभव का वैभव है। अनुभव ही अभिव्यक्ति में शक्ति अर्थात् आत्मशक्ति कहलाता है। आत्मशक्ति की पहचान प्रामाणिकता में ही होती हैं। प्रामाणिकता ही चैतन्य इकाई की जागृति और तृप्ति का साक्ष्य है। विकास का लक्ष्य सत्ता में संपृक्त प्रकृति का सत्ता में अनुभूत होने से हैं। अनुभूति स्वयं जागृति का स्वरुप हैं। जागृतिपूर्वक ही पहचान और निर्वाह करने की व्यवस्था है। पहचान और निर्वाह ही प्रामाणिकता है यही अनुभूति की अभिव्यक्ति है।
प्रत्येक परमाणु में कंपनात्मक गति होती हैं। इसका प्रमाण अणु और अणुरचित पिण्डों में संकोचन-प्रसारण के रूप में दृष्टव्य है। पदार्थावस्था के अणुओं में बाह्य दबाव के बिना संकोचन अथवा प्रसारण सिद्घ नहीं होता है जबकि प्राणावस्था की प्रत्येक प्राण कोशिका में संकोचन, प्रसारण, स्पन्दन स्वभाव के रूप में होना पाया जाता है। यह अणुओं में होने वाली स्पंदनशीलता ही प्राणावस्था की स्पष्ट पहचान है।
पदार्थावस्था से प्राणावस्था, रचना के अर्थ में विकास सा प्रतीत होता है। जब तक उस अवस्था में रहता है तब तक उसका प्रयोजन भी सिद्घ हो जाता है, जैसे प्राणावस्था की प्रत्येक कोशिका जितनी भी बड़ी रचनाएँ होती है, उसके प्रतिरुप में होती हैं। तात्पर्य यह है कि रचना में जो कोशिका का अस्तित्व है, वह उस रचना के संपूर्ण आकार का सूक्ष्म रूप है। इस प्रकार देखने पर पता चलता है कि प्रत्येक कोशिका जिस रचना में भागीदारी निभा रही है उसकी प्रत्येक कोशिकायें उसी स्थान में होने वाली क्रिया को संपादित करती है। यही साक्ष्य है कि कोशिकाएँ रचना के संपूर्ण रूप का प्रतिरुप है।