भौतिकवाद

by A Nagraj

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कला सहज प्रमाण है। व्यवस्था में भागीदारी क्रम में समाधान, समृद्घि सहज पाया गया। यह बुद्घिजीवियों का प्रश्न हो सकता है कि अव्यवस्था बहुल समुदाय परंपराओं में व्यवस्था सहज विधि से जीना कैसे बन पाएगा? उसको ऐसा देखा गया, किया गया और मूल्यांकन भी किया गया कि परंपरा से अधिक जागृत होने की संभावना समीचीन रहता ही है। इस बात का ज़िक्र पहले भी किया गया है। इसी क्रम में हर वर्तमान में ऐसे व्यक्ति के होने की संभावना से कोई भी बुद्घिजीवी इन्कार नहीं कर सकता। इसके प्रमाणों में भौतिकवादी विधि से अनेक अनुसंधान ज्ञान परंपरा में प्रचलित नहीं था। इसी प्रकार आदर्शवादी विधि में भी बहुत सारे महापुरुष अपने को मौलिक रूप में व्यक्त किये, जिनकी गुण गाथा सम्मान और आस्था के साथ आज भी किया जाना देखने को मिल रहा है। इसी नियति क्रम में अर्थात् जागृति क्रम में मध्यस्थ दर्शन, सहअस्तित्ववाद को व्यक्त करने से पहले जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन और मानवीयता पूर्ण आचरण सहज विधि से, जी कर देखा गया, उसके अनंतर ही ग्रंथ को लिखने की प्रक्रिया शुरु की गई।

अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण सहित जीने के क्रम में यह देखा गया है कि जीवन ज्ञान के साथ ही स्वयं के प्रति विश्वास हुआ। श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करना सहज हो गया। जीवन ज्ञान को कुछ लोगों में प्रबोधन पूर्वक अवधारणा में लाए और उन्हीं के चिंतन और व्यवहाराभ्यास के योगफल में उनमें भी स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करना प्रमाणित हुआ। अस्तु, इसी क्रम में यह देखा गया कि व्यक्तित्व एवं प्रतिभा में संतुलन स्थापित हुआ। जिसके प्रमाण में व्यवहार में सामाजिक, व्यवसाय में स्वावलंबन सहज आवश्यकता महसूस हुई, स्वीकार हुई, उसी विधि से जीया गया। इसलिए स्वयं में, से, के लिए प्रमाण होने के फलस्वरुप, मानव में, से, के लिए प्रमाण होने की संभावना पर विश्वास किया है। इसी सत्यतावश यह अभिव्यक्ति मानव के सम्मुख अर्पित हुई है।

उपर्युक्त क्रम में जागृति स्पष्ट हो गई। यह अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान की संयुक्त महिमा के रूप में स्पष्ट हुई। इसी महिमावश मानवीयता पूर्ण आचरण ध्रुवीकृत, समीकृत विधि से समझ में आया। इसके लोक व्यापीकरण की सहज संभावना भी समझ में आई। तथा दो विधियों से आई विचारधारा, कहाँ-कहाँ निग्रह बिंदु में आई, यह