भौतिकवाद

by A Nagraj

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परंपरा परिवार में, से, के लिए वर्तमान हो पाता है। इससे यह भी समझ में आया कि यदि परिवार नहीं है, तो प्रमाण नहीं हैं।

प्रत्येक मानव मूलत: सुख धर्मी है ही। आशा के रूप में यह मानव में प्रमाणित होता है अथवा इच्छा के रूप में यह पाया जाता है। इसकी सफलता की निरंतरता नियति सहज व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का फलन हैं। संपूर्ण परंपराएँ व्यवस्था के संबंध में भ्रमित होने के फलस्वरुप, प्रत्येक मानव अपने में कल्पनाशील होने के कारण रुचि मूलक विधि से मानसिकता में आना एक बाध्यता बन गई। इतिहास के अनुसार भी, स्वर्ग की परिकल्पना भी रुचि के अनुकूल वर्णन हैं। रुचि सहज कल्पनाएँ इन्द्रिय सन्निकर्ष के आधार पर हैं। इन्द्रिय सन्निकर्ष शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध के रूप में होना पाया जाता है। इसी का रुचिकर होना, अरुचिकर होना देखा जाता है।

रूचि की एकरूपता का, सार्वभौमिकता का कोई नियम नहीं होता। रुचि मूलक मानसिकता को हटाने के लिए अथवा परिवर्तन करने के लिए एक मात्र प्रस्ताव उपदेश के रूप में मोक्ष को बताया गया। उसके लिए विरक्तिवादी चरित्र, साधना और उसके क्रम का प्रस्ताव भी मानव के सम्मुख प्रस्तुत है। यह भी देखने को मिला कि विरक्ति में मानव ने अपने को अर्पित भी किया। यह सब होने के उपरान्त भी, किसी भी परपंरा में सार्वभौम व्यवस्था निखरकर, उभरकर जनमानस में नहीं आया। अथवा इस रिक्तता के चलते सामान्य मानव के लिए रुचि मूलक प्रणाली से कल्पनाओं को दौड़ाना सहज हो गया। फलत: अव्यवस्था के अनंतर पुन: अव्यवस्था हाथ लगते आया। मूल मुद्दा भक्ति, विरक्ति, भोग और संग्रह क्रम में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र व्याख्या और कार्यक्रम लोक विदित नहीं हो पाई। अभ्यास में आना तो दूर ही रहा। आज की स्थिति में सर्वाधिक संग्रह, भोग की मानसिकता अथवा लोक मानसिकता को देखते हुए व्यवस्था को पहचानना एक अनिवार्य स्थिति निर्मित हो चुकी है। इसके पक्ष में अर्थात् सार्वभौम व्यवस्था को पहचानने के पक्ष में सर्वमानव में सुखापेक्षा (सुख की अपेक्षा) एक मात्र सूत्र हैं। सुख सहज सूत्र व्याख्या ही भरोसा करने और प्रयोग कर, अभ्यास कर, प्रमाणित कर, लोक व्यापीकरण करने योग्य कार्यक्रम दिखाई पड़ता है।

इसका मूल ध्रुव जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन तथा मानवीयतापूर्ण आचरण का समीकरण ही हैं। इसके लिए अस्तित्व सहज सूत्र, सहअस्तित्व सहज व्याख्या, अध्ययन