भौतिकवाद

by A Nagraj

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12) भौतिकता, अभिव्यक्ति, संस्कार और व्यवस्था

सम्पूर्ण अभिव्यक्ति, सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति के रूप में नित्य वर्तमान है। वर्तमान, त्रिकालाबाध सत्य है। वर्तमान में सहअस्तित्व में अनुभव प्रतिष्ठा वश दृष्टा पद व जागृतिपूर्ण मानव परंपरा है। यह प्रमाणित होना ही सत्य दृष्टा होने का प्रमाण हैं। व्यापक रूपी सत्ता में संपृक्त प्रकृति में ही जीवन है और जीवन में ही जागृति प्रमाणित होता है। यह एक सहज कार्य के रूप में प्रमाणित हो चुका है। इस धरती पर मानव, शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में प्रकाशमान है और अभिव्यक्तिशील है। विकास क्रम में संपूर्ण वनस्पति जगत प्राणावस्था के रूप में व्यक्त हैं। यह भौतिक वस्तु की महिमा है, यह समझ में आ चुका है। विकास, परमाणु में होना देखा गया है। ऐसे परमाणुओं में, से चैतन्य पद में संक्रमित होने के उपरान्त ही ‘जीवन’ है। यह ‘जीवन’ अपनी महिमा को जीवनी क्रम में संपूर्ण जीवों के रूप में दिखता है। जागृति क्रम में मानव भी जागृति पूर्वक एक अभिव्यक्ति है। इस प्रकार सत्ता में संपृक्त प्रकृति चार अवस्थाओं में व्यक्त है। इसका नामकरण पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था है।

पदार्थ, प्राण, जीव अवस्था सहज कार्यकलाप नियमित, नियंत्रित, संतुलित रहना पाया जाता है। ज्ञानावस्था के मानव के लिए अपने में नियंत्रित, नियमित और संतुलित रहना अभी भी प्रतीक्षित है। इस धरती पर सबके लिए अभी तक कोई ऐसा मार्ग नहीं निकला, जिससे प्रत्येक समुदाय, परिवार, व्यक्ति संयत हो सके, नियंत्रित हो सके। नियमित हो सके और सुख, सार्थक, समाधान और सौंदर्य का अनुभव कर सकें। इसके मूल में मानव में निहित अमानवीयता का भय ही प्रधान विरोधाभासी तत्व है। यदि अमानवीयता के संपूर्ण स्वरुप का आंकलन करें तब युद्घ, शोषण, पर-धन, पर-नारी, पर-पुरुष, पर-पीड़ा, व्यापार, नौकरी के रूप में दिखाई पड़ता है। यही सब अमानवीयता का विराट रूप हैं। युद्घ, प्रौद्योगिकी, शक्ति केन्द्रित शासन और व्यापार कर्मों में फँसा हुआ व्यक्ति स्वाभाविक रूप में संग्रह करने के लिए अपने को अर्पित करता हैं। जितना मानव अपने में अविश्वास और भय से पीड़ित होता है, उतना ही संग्रह से सुखी होने, राहत पाने की आशा करता है। संग्रह के लिए पुन: अमानवीय कर्मों को, कृत्यों को और घटनाओं को घटित करते ही आया है। अभी भी घटित कर रहा है।