भौतिकवाद
by A Nagraj
1. शोषण कृत्यों को लाभोन्मादी विधि से आदमी कर ही रहा है।
2. भोगोन्मादी विधि से संग्रह और पीड़ा पैदा कर ही रहा है।
3. युद्घ घटना के लिए सभी तैयारी कर चुके हैं और
4. पर्यावरण समस्या को घटित कर चुके हैं।
पर्यावरण समस्या में जलवायु, धरती, वन संबंधी बातों को सोचा गया है। ये सब के सब धरती के वातावरण में संपूर्णता को बनाये रखे थे। जब से मानव अपने को युद्घ, शोषण, संग्रह के आधार पर विकसित मानने लगा तब से ही इस धरती के वातावरण में स्थित समस्त द्रव्यों का ह्रास होने लगा। इसमें भ्रम होने का मूल कारण प्रौद्योगिकी रहा। इसकी मुक्ति एक ही है वह है मानवीयता। मानवीयता पूर्वक ही मानव अमानवीयता से मुक्ति पा सकता है। यही सर्वमानव में, से, के लिए अपेक्षित जागृति है।
मानवीयतापूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति, जीने की कला सर्वतोमुखी समाधान रूप में ही सभी विधाओं में अपनाने की स्थिति में ही इस धरती का वातावरण पुन: समृद्घ होना; जनसंख्या का नियंत्रण होना, प्रदूषण से मुक्त होना और सर्वाधिक धरती की सतह में पाए जाने वाले स्रोतों से ही ईंधन (ऊर्जा) स्रोत संपन्नता संभव हैं। जिस प्रकार से, जितनी तेजी से, धरती का वातावरण संतुलन बिगड़ रहा है। संतुलन के लिए ही समाधानात्मक भौतिकवाद प्रस्तुत है। प्रमाणित होना हर मानव की प्रवृत्ति पर निर्भर है। इसका मूल कारण धरती में “चुंबकीय प्रभाव” समेत ही संतुलन-असंतुलन सहज प्रभाव हैं। यह धरती ही ठोस, तरल, विरल वस्तुओं की संपूर्णता में ही अपनी संपूर्णता को बनाए हुए हैं। इस संपूर्णता में जो महत्वपूर्ण बिंदु है, वह है- इस धरती में, उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव को होना पाया जाता है। इन दोनों का संतुलन, बीच धारा की चुम्बकीय प्रभाव धारा है। यह अपने आप में ध्रुव से ध्रुव के साथ बंधा हुआ, नित्य प्रवाह हैं। वही, धरती की सतह में विद्युत प्रवाह के रूप में स्थापित है, इसलिए संपूर्ण वातावरण में विद्युत तरंग का होना पाया जाता है। अभी तक के विकास और विकसित परिकल्पनाओं के चलते धरती के साथ जितने भी खिलवाड़ हुए उसके अनुसार इस धरती के बीच में स्थिर रूप में पाई जाने वाली चुम्बकीय प्रभाव में व्यतिरेक उत्पन्न हो जाना भी एक संभावना हैं। यदि ऐसा संतुलन, असंतुलन में परिवर्तित हुआ तो इस धरती का ठोस रूप में विकृत परिवर्तन संभव हैं। यह तथ्य आगामी दिनों में परीक्षण के लिए एक बिंदु बन सकता है।