भौतिकवाद

by A Nagraj

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3. श्रम विनिमय मानव सहज एक आवश्यकता है।

4. श्रम विनिमय को वस्तु विनिमय के रूप में किया जा सकता है।

श्रम मूल्य का मूल्यांकन प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन के आधार पर होना पाया जाता है। श्रम नियोजन आज भी प्राकृतिक ऐश्वर्य पर ही होता है। उसे प्रतीक मूल्य के चक्कर में ले जाकर परस्पर विश्वासघात करने की हजारों मंजिल की एक बड़ी दुकान आदमी जाति ने सजा लिया है। इसी व्यापार में ही सर्वाधिक दिलचस्पी मानव में देखने को मिलती है। इसके मूल में संग्रह है, संग्रह के मूल में भोग है। सुविधा भोग की लिप्सा में व्यापारवाद को मानव मानस से सर्वाधिक संख्या में स्वीकार कर लिया है। व्यापार मूलत: उत्पादन नहीं है, जबकि उत्पादन और उपभोक्ता के बीच में सर्वाधिक पवित्र सेवा मानकर जनमानस ने स्वीकारा है। इसका प्रमाण है व्यापारी ने जो दाम लेकर जिस वस्तु को बेच लिया, उसका विश्वास प्रत्येक मानव करता आया है। अभी भी सर्वाधिक लोग विश्वास करते हैं। अभी की स्थिति में, कई देशों में, जिस वस्तु को जिस नाम से बेचा जाता है, उस नाम की वस्तु का जो सहज रूप गुण होता है, उससे भिन्न या विकृत वस्तुओं को बेचकर लाभोन्माद की तुष्टि देता हुआ आदमी देखने को मिलता है। जैसे चावल में पत्थर मिलाकर बेचना। इसी प्रकार औषधि द्रव्यों में भी मिलावट की बात देखी गई हैं। यह लाभोन्माद से ही आता है। लाभोन्माद संग्रह के रूप में विनियोजित रहता है। यह उदाहरण यहाँ इसलिए दिया गया है कि वस्तुओं को खरीदते समय ही मानव सहज रूप में ही विश्वास से खरीदता हैं। उस वस्तु के निष्प्रयोजन और विकल्प की स्थिति में पीड़ित होना स्वाभाविक है । इससे पता लगता है कि एक तो मूल्यों की मूल्यांकन विधि में, मूल्यांकन में जो ज्यादा कम वाली बात है, वह अपने प्रकार की दो स्थितियाँ निर्मित करता है। दूसरी यह भी बात समझ में आती है कि वस्तु की पवित्रता, गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह लग गए है? इसलिए मानव की व्यवस्था प्रणाली में, प्रत्येक व्यक्ति व्यवस्था में भागीदार है, इस कारण व्यापार मानसिकताएँ ग्राम मूलक उत्पादन और समृद्घि सहज मानसिकता में विकसित होना स्वाभाविक है।

समृद्घि, व्यवस्था में भागीदारी होने के प्रमाण में अपने-आप प्रमाणित होती है। अपने आप का मतलब नियति सहज रूप में ही समझने से है। मानव में संपूर्ण उपलब्धियाँ समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व ही है। यही व्यवस्था में, से, के लिए जीने की