भौतिकवाद

by A Nagraj

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11) भय, प्रलोभन या मूल्य और मूल्याकंन

भय और प्रलोभन का प्रचलन अर्थात् जन मानस में स्वीकृति शुभ के अर्थ में आदर्श युग के आरंभ काल से ही होना पाया जाता है। धर्मशास्त्रों, परीकथाओं से यह पता लगता है कि विभिन्न समुदायों में विभिन्न प्रकार से पाप पुण्य कार्यों, व्यवहारों का उपदेश दिया गया। इसी प्रकार पुण्य कार्य-व्यवहार के विपरीत रूप में किये गये कार्य-व्यवहार को पाप निरुपित किया गया। पाप और नरक के प्रति भय तथा पुण्य और स्वर्ग के प्रति प्रलोभन उपदेशों से, सभी कथा परीकथाओं को प्रत्येक परंपरा में प्रकारान्तर से कहा गया है। यही कारण रहा, लोक मानस ने स्वर्ग और पुण्य को अपनी चाहत में बसा लिया, फलस्वरुप भय को स्वीकार लिया। आदर्श युग के पहले भय रहा ही। नस्ल-रंग के आधार पर कबीला युग तक प्राकृतिक भय एवं मानव की परस्परता में भय बना ही रहा, यही प्रधान कारण रहा। यही आदर्श युग में, प्रलोभन की बात स्वीकारने का आधार हुआ और सुरक्षा का आश्वासन राजगद्दी से प्राप्त होता ही रहा। धर्म गद्दी से स्वर्ग का प्रलोभन एवं मोक्ष का आश्वासन मिलता ही रहा। इस प्रकार भय, प्रलोभन, सुरक्षा के आश्वासन पर आधारित जीने के तरीके विकसित होते रहे। आज भी भय और प्रलोभन के साथ ही राज्य शासन, उद्योग व्यवस्था को निर्वाह करना चाहते हैं। यह सभी देशों में प्रकारान्तर से प्रभावशील रहा है।

गणतांत्रिक विधि से जब शासन जनादेश के आधार पर राजनैतिक दलों के हाथ लगा, उसमें जनादेश पाने के लिए जनमत के साथ धन व्यय को सवैध मान लिया गया। यही मुख्य रूप में गणतांत्रिक प्रणाली की जड़ में ही पराभव का बीज जुड़ गया। बँटवारे के अनंतर पैसा पाने के अधिकारों का बँटवारा से संतुष्टि-असंतुष्टि बह पड़ी। इस प्रकार गणतंत्र प्रणाली आज वोट-नोट, बँटवारा, संतुष्टि-अंसतुष्टि के चक्कर में फँस गई। इसी के साथ जन मानस भी शासन-प्रशासन को पहले ही अपना-पराया मानते रहा। आज की स्थिति में शासन को स्वीकारने के स्थान पर अस्वीकार करते रहा। दूसरी विधि से सोचने पर पता चलता है कि गणतांत्रिक विधि से शासन होना संभव ही नहीं है क्योंकि जन प्रतिनिधि किसी न किसी सामान्य परिवार से जनादेश के साथ गद्दी पर बैठता है।