भौतिकवाद
by A Nagraj
इस प्रकार सहअस्तित्व सहज विधि से मानव व्यवस्था को पहचानने का मार्ग प्रशस्त होता है। इसका सूत्र यही है। प्रत्येक एक अपने “त्व” सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार हैं। इसलिए मानव भी मानवत्व सहित व्यवस्था है और उसकी समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज संभव हैं। इसीलिए व्यवस्था, मानवत्व सहज गति है, न कि शासन। व्यवस्था विधि से ही परस्परता में मूल्य और मूल्यांकन सार्थक होता है।
व्यवस्था अस्तित्व सहज वर्तमान में विश्वास है। अस्तित्व नित्य वर्तमान है। वर्तमान में विश्वास रहना, उसकी अक्षुण्णता की आवश्यकता रहना, यही मानव में जागृति का प्रमाण हैं। व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी ही गति है।
प्रत्येक मानव वर्तमान में विश्वस्त, भविष्य के प्रति आश्वस्त रहना ही चाहता है। इसमें अगर कोई बाधा निर्मित हुई है तो वह मानव के कारण ही है। यदि रहस्यता हुई है तो वह भी मानव सहज नैसर्गिकता है। सर्वप्रथम मानव के साथ विश्वास बनाए रखने; विश्वास पाने और उसकी निरंतरता पर भरोसा कर सकें, यही मुख्य स्थली हैं। इस पर विचार करने, विवेचना करने, योजनाबद्घ तरीके से प्रमाणित होने के लिए मानव ही अध्ययन के मूल में प्रस्तुत होता है। अध्ययन की मूल वस्तु मानव ही है। अध्ययन करने वाला मानव ही है और प्रयोजित होते समय मानव और नैसर्गिकता का मूल्यांकन होना एक आवश्यकता बन जाती है।
मानव जब कभी भी अपने में समाधान से तृप्त होता है, तब-तब नैसर्गिकता में समाधान यथा मानव धरती, जल, वायु, जंगल, जीव, पक्षी के साथ समाधान आता है। इनके साथ कितना समाधान सहज कार्य किया, यही स्व-समाधान की पुष्टि है।
सहअस्तित्ववादी नजरिए से जब हम देखते हैं, तब हमें आंकलित होता है कि हम कितना समाधानित हैं। इस बात को अपने में मूल्यांकन करने योग्य होते हैं। समाधान मूलत: पूर्णता और पूर्णता की निरतंरता के अर्थ में प्राप्त अवधारणा के रूप में मानव में ही प्रमाणित होना पाया जाता है। पूर्णता का स्वरुप अस्तित्व में गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता, आचरण पूर्णता ही हैं, जिसका दृष्टा-ज्ञाता जागृत मानव है। दृष्टा का तात्पर्य अस्तित्व सहज नित्य वर्तमान में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने से है। इसकी अबाध गति, अक्षय स्रोत सहअस्तित्व है। मानव ही प्रमाणित हो पाता है। इसकी सत्यता सहज अभिव्यक्ति के लिए मानव में अप्राप्त की प्राप्ति, अज्ञात को ज्ञात करने और