भौतिकवाद
by A Nagraj
प्रलोभन यथावत् है। भय और प्रलोभन का यही क्रम बनता रहा है कि आवश्यकता से सुविधा, सुविधा से भोग, भोग से अतिभोग। इसी क्रम में जीने के तरीकों को अपनाया गया। इसका स्रोत संग्रह को मान लिया गया। संग्रह के लिए एक मात्र स्रोत, यह धरती रही आई। फलस्वरुप जो मनमानी कर सकते थे, उससे नैसर्गिकता का असंतुलन, प्रदूषण के रूप में एवं विकराल जन संख्या के रूप में सामने आया। यह समस्या के रूप में मानव के सम्मुख प्रस्तुत हुआ।
उल्लेखनीय बात यह है कि मानव ने ही जनसंख्या को बढ़ाया। बढ़ाने के लिए प्रेरणा देते ही आया और प्रदूषण को विज्ञान-तकनीकी की सहायता से प्रौद्योगिकी तरीके से मानव ने ही निर्मित किये। जहाँ तक जनसंख्या वर्धन की बात है, इस बात में सभी ने भागीदारी को निर्वाह किया। किसी समुदाय ने कम, किसी समुदाय ने ज्यादा किया - ऐसा आंकलित हो पाता है। इसको प्रत्येक समुदाय, प्रत्येक मानव समझ सकता है। जहाँ तक प्रदूषण की बात है, प्रधानत: उद्योगों से इसकी शुरुआत होती है। उद्योगों से निर्मित वस्तुओं की आवश्यकता मानव मानस में होना पाया जाता है। इसका साक्ष्य यह है कि जो कुछ भी उद्योगों द्वारा उत्पादन प्रस्तुत किये गये, उसे मानव ने स्वागत किया, अपनाया। अपनाने का स्वरुप, आवश्यकता से सुविधा, सुविधा से भोग, भोग से अतिभोग की ओर देखा गया। इस प्रकार कृत-कारित, अनुमोदित प्रमाणों से मानव प्रदूषण में अपनी भागीदारी को प्रस्तुत किया। इन तथ्यों को यहाँ पुन: उल्लेख किया गया है कि मानव में यह अध्ययन किया गया है-
1. मानव अपनी गलती की समझ में पीड़ित हुए बिना, अपने द्वारा की जा रही गलती का सुधार नहीं करता।
2. गलती की पीड़ा की समझ की स्थिति में ही मानव ने सुधार को स्वीकारा।
अर्थात् उसकी (सुधार की) आवश्यकता को समझा गया, फलस्वरुप वह उसके लिए आवश्यकीय क्रियाकलापों को अपनाता है। इस आधार पर, इस धरती में पाए जाने वाले सभी समुदायों ने प्रदूषण और जनसंख्या वृद्घि में भागीदारी को निर्वाह किया है। इस गलती की पीड़ा सभी समुदायों को महसूस करने की आवश्यकता है। इसी के आधार पर इससे बचने की अथवा सुधरने की बात समझ में आती है।