भौतिकवाद

by A Nagraj

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अस्तित्व में चारों अवस्थाएँ इस धरती पर होना प्रमाणित हैं। यह धरती एक सौर व्यूह का अगंभूत (अंग के रूप में) कार्य करती हुई है यह स्पष्ट हो चुका है। ऐसे अनंत सौर व्यूह होने की कल्पना मानव में होती है, इस धरती पर जितने भी मानव है वे सब धरती पर जागृति सहज प्रमाणों को प्रमाणित करें, इसकी परम आवश्यकता हैं। क्योंकि सभी समस्याएँ मानव में, मानव से, मानव के लिए की हुई हैं। इसलिए सभी आयामों, कोणों, दिशाओं, परिप्रेक्ष्यों में समाधान प्रस्तुत करना भी परम आवश्यकता है। इसका आधार यही है कि मानव को समस्याएँ स्वीकृत नहीं हैं। अपितु समाधान सहज ही स्वीकार्य होते हैं। समाधान का संपूर्ण प्रयोजन मानव इकाई के अंतर-संबंधों और अस्तित्व में परस्पर सहअस्तित्व सहज वर्तमान में, पहचाना जाता है। अर्थात् पूर्णता क्रम, पूर्णता और उसकी निरंतरता सहज सूत्रों, व्याख्याओं जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के प्रमाणों से संप्रेषित होता है। यही मानव भाषा का अर्थ है। इस अर्थ को संप्रेषित करने के लिए कारण, गुण, गणितात्मक विधि से, विवेक और विज्ञान सम्मत तर्क प्रणाली को अपनाना होता है। इसी विधि से पूर्णता की अवधारणा, उसकी अक्षुण्णता सहज रूप में ही मानव परंपरा में प्रवाहित होती हैं। मानव परंपरा अर्थात् मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार, परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था, मानवीय आचरण संहिता रुपी संविधान इसकी प्रतीक्षा सबको है। इसका कारण एक ही है, इसका नित्य सर्वशुभ, मानव में ही स्वीकृत रहता है। इसी सत्यतावश मानव में नित्य स्वीकारा हुआ प्रमाण इच्छा के रूप में, शुभ विचार के रूप में, शुभ कल्पना के रूप में प्रस्तुत कर लेना स्वाभाविक है। उत्पादन में व्यवहार में आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण में होने वाली सहज संप्रेषणा ही मानवीय आचरण, मानवीय व्यवहार और मानवीय व्यवस्था के रूप में प्रमाणित होती हैं। इसके लिए मानवीय शिक्षा-संस्कार परपंरा के रूप में प्राप्त होना भी, सहज हैं। यही प्रमाण परंपरा का तात्पर्य और अपेक्षा है।

मानव सहज जागृति ही मानवीयतापूर्ण व्यवस्था का आधार है। उसकी निरतंरता का स्रोत हैं। संपूर्ण मानव का जागृति क्रम जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का सहज क्रम है। जानने, मानने की संपूर्ण वस्तु अस्तित्व ही है। अस्तित्व में मानव अविभाज्य हैं। “अस्तित्व में परमाणु में विकास” सहज विधि से विद्यमान जीवन प्रतिष्ठा और अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक रचना रुपी शरीर के संयुक्त रूप में मानव परिभाषित है और व्याख्यायित हैं। अस्तित्व में संपूर्ण वस्तु अपने-अपने स्वरुप में परिभाषित हैं और