भौतिकवाद

by A Nagraj

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भय आदि काल से ही प्राकृतिक भय, पशु भय मानव में निहित अमानवीयता का भय के रूप में रहा है। नस्ल, रंग, जाति, सम्प्रदाय, मत, पद, पंथ और वस्तुओं के संग्रह के आधार पर मानव बंधा रहा, उसका पिंड नहीं छूटा। हरदम ये भय पैदा करते ही आए। स्वर्ग का प्रलोभन ही संग्रह सुविधा और भोग विलास के रूप में मानव मानस में परिवर्तित हुआ। आज के मानव मानस से, रहस्यमय स्वर्ग के साथ भरोसा कम हो गया और अब मरने के बाद आश्वासन के रूप में मिलने वाले स्वर्ग के प्रलोभन से कहीं अधिक भरोसेमंद माना जाता है, संग्रह और भोग। राज सत्ता और वस्तु को हथियाने के क्रम में ही संघर्ष का दौर चल रहा है। यह प्रधानत: अधिकारियों, राजनेताओं, कुछ एक धर्म नेताओं-व्यापारियों तथा उद्योगपतियों में देखने को मिल रहा है। आम जनता के लिए ये ही सब लोग सुविधा संग्रह का आदर्श हैं। इस आधार पर अधिकाधिक संख्या में मानव मानस संग्रह सुविधा और भोग यात्रा में व्यस्त है।

उल्लेखनीय बात यह है कि रुचि मूलक मानसिकता के आधार पर शासन, व्यवस्था, समाज और वर्तमान में विश्वास होना संभव नहीं हैं। व्यवस्था का विचार, अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन से सर्वसुलभ होता है। यह चिंतन अस्तित्व में अविभाज्य मानव सहज अध्ययन है। अस्तित्व समग्र का अध्ययन, मानव संपूर्णता का अध्ययन करने वाला मूल वस्तु मानव ही है। मानव अपने रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के रूप में संपूर्ण होता है। इसका अध्ययन संभव हो गया है। मानव मूलत: शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में है, यह प्रमाणित है, वर्तमान है। इसका विधिवत् अध्ययन किया गया। शरीर रचना के संबंध में, रासायनिक-भौतिक रचना रुपी शरीर के समुचित रूप को स्पष्ट कर दिया है और जीवन का स्वरुप “अस्तित्व में परमाणु में विकास” अध्याय में स्पष्ट किया गया है। परमाणु में विकास ही गठनपूर्णता पूर्वक चैतन्य प्रकृति ही जीवन पद में प्रतिष्ठित है - ऐसा पाया जाता है। ऐसा जीवन ही जागृति क्रम में मानव परंपरा में, मानव शरीर द्वारा प्रमाणित होता है। यह नियति सहज कार्य है। ऐसे कार्य की सफलता क्रम में, मानवीयता एवं मानवत्व एक स्पष्ट आयाम है - इस बात को स्पष्ट किया है। इस प्रकार अस्तित्व- सत्ता में संपृक्त प्रकृति है, यह स्पष्ट हो चुका है। अस्तित्व सहज चारों अवस्थायें सहअस्तित्व के रूप में, नित्य वर्तमान है - यह स्पष्ट किया जा चुका है।