भौतिकवाद

by A Nagraj

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जागृति क्रम में यही महिमा देखी गई है कि जैसे-जैसे मानव जागृत होता है, वैसे ही अजागृति अथवा भ्रम जन्य कार्यकलाप समाप्त हो जाते हैं। इसे ऐसा भी समझ सकते है कि किसी भी कार्य-व्यवहार को सही ढंग से करते तक गलतियाँ होना संभव है अथवा गलतियाँ होती हैं। सही कार्य समझ में आने के उपरान्त गलती की संभावना ही समाप्त हो जाती हैं। निर्भ्रमता का प्रमाण मानवत्व सहित व्यवस्था, समाज और सामाजिकता है। समाज और सामाजिकता में, मानव से मानव को विश्वास सहज ही होता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदार होना विश्वास का प्रमाण है। ऐसी व्यवस्था में प्रमाणित होना, जागृति और जागृति प्रकरण प्रमाण रूप में होता है। अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था ही जागृति का द्योतक है।

उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो गया कि जीने की कला, विचार शैली और अनुभव बल के आधार पर ही, मानव परंपरा अपनी जागृति का साक्ष्य प्रस्तुत कर पाती है। भविष्य के प्रति आश्वस्त एवं वर्तमान में प्रमाण रूप में अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में वैभवित हो पाता है। यही मानव का लक्ष्य है। इस लक्ष्य के संदर्भ में ही आवश्यकता, उत्पादन के लिए उद्योग तथा संबंध और संतुलन को बनाये रखना सुलभ हो जाता है। मुख्य बात यह है कि-

1. व्यवस्था में मानव संयत होता है, जो जागृति का प्रमाण है।

2. परिवार मानव की आवश्यकता संयत होती है, यह जागृति का प्रमाण है।

3. प्रत्येक परिवार आवश्यकता से अधिक उत्पादन करता है, यह जागृति का प्रमाण है।

4. प्रत्येक परिवार अथवा प्रत्येक अवस्था में परिवार समृद्घि का अनुभव करता है, यह जागृति का प्रमाण है।

इस तथ्य को ऐसा समझा जा सकता है कि जब परिवार अपनी स्वायत्तता की परिभाषा में वर्तमान होता है, तब यह परस्पर संबंधों को पहचानता हुआ, मूल्यों को निर्वाह करता हुआ और मूल्यांकन करता हुआ देखने को मिलता है। साथ ही परिवार में अपनाया हुआ उत्पादन कार्य में भागीदार होता हुआ देखने को मिलता है। इस क्रम में आवश्यकता से अधिक उत्पादन, प्रमाणित होता है। इसके मूल में यह भी तथ्य प्रभावशील रहता है कि जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में प्रत्येक मानव वैभवित होने के कारण, जीवन