भौतिकवाद

by A Nagraj

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प्रमुख कार्यक्रम रहेगा। इसे ध्यान में रखकर कृषि कार्य के लिए जो समझदारी चाहिए उसको भी स्वीकृति करना आवश्यक हो जाता है। इस क्रम में धरती का उर्वरक संतुलन को बनाए रखना एक आवश्यकता है। इसमें मानव का दायित्व भी बनता है। धरती, अनाज उत्पादन-कार्य, उर्वरकता का संतुलन स्वाभाविक रूप में एक-दूसरे से आवर्तनशील कार्य हैं। इस आवर्तनशीलता में पहले भी संतुलन का जिक्र किया जा चुका है। इसमें मुख्य बात यही है कि धरती में उपजी हुई संपूर्ण हरियाली, दाना को निकालने के उपरान्त सभी घास, भूसी, जानवर खाकर गोबर गैस के अनंतर खाद बनकर खेतों में समाने की विधि को अपनाना चाहिए। अन्यथा घास, भूसी ज्यादा होने की स्थिति में अच्छी तरह से सड़ाकर खाद बनाना चाहिए। यह खेतों में डालना चाहिए। यह विधि सर्वाधिक कास्तकारों के यहाँ प्रचलन में है ही। इसकी तादाद बढ़ाने की आवश्यकता है। जैसे-जैसे खेत अधिक होता है वैसे-वैसे खाद की मात्रा भी अधिक होना आवश्यक है। कीटनाशक या कीट नियंत्रक कार्यों को भी कास्तकारों को अपने हाथों में बनाए रखना चाहिए जिससे पराधीनता की नौबत न आए।

धरती में अम्ल और क्षार अनुपाती विधि से समाहित होने का जो क्रम बना है, वह पाचन विधि से बना है। धरती में पाचन विधि का तात्पर्य जहाँ तक उर्वरक संवहन प्रक्रिया रहती है वहाँ तक (उतनी गहराई तक) धरती में हवा का संचार होना पाया जाता है। यही पाचन विधि का क्रम है। इस विधि से हवा से धरती को जो आवश्यक चीज है, रसायन है या वस्तु है, वह समावेश होने के क्रम में हैं। यह क्रिया अनुपाती अम्ल, क्षार आदि रसायनों के संयोग से होता है। जैसे-जैसे अम्ल, क्षार आदि रसायन अर्थात् खनिज संयोग से धरती का अर्थात् कृषि और वन का संयोग होने से धरती में अनुपाती अम्ल और क्षार संचय होना पाया जाता है, यही अनुपात से अधिक क्षार ही ऊसर (बंजर) भूमि में परिवर्तित हो जाता है जिसमें फसल की संभावना समाप्तप्राय हो जाती है।

अभी जैसा भी रासायनिक खाद और उसके मनमाने उपयोगों को देखने पर पता चलता है कि एक दो पीढ़ी के बाद धरती से कोई कुछ ले नहीं पाएगा। इसके आधार के रूप में कहीं भी इस बात को सर्वेक्षण कर सकते है कि जहाँ-जहाँ रासायनिक खाद का उपयोग हो रहा है, उस जमीन में अम्लीयता, क्षारीयता कितने प्रतिशत बढ़ गई। इसके अनुपात को ऐसे सभी खेतों में परीक्षण कर सकते है कि जब से रासायनिक खाद पड़ रहा है