भौतिकवाद
by A Nagraj
व्यतिरेक पैदा हुआ, उसी के आधार पर धरती की उर्वरकता कम होते गई। दूसरी विधि से भी उर्वरकता में कमी होना देखा गया। सैकड़ों वर्षों से धरती जहाँ-जहाँ क्षरण प्रणाली के चपेट में रही, वहाँ उर्वरकता का ही ह्रास होने लगा। इस प्रकार जितने स्थानों पर क्षरण हुआ, वहाँ-वहाँ धरती बंजर होने लगी। इसका मूल कारण मानव ही रहा। अंततोगत्वा मानव अपने कार्यकलापों को करते और प्रकृति सहज परिणामों को समझते हुए आज यहाँ तक पहुँचा। आज की स्थिति यही है कि वन खनिज के साथ मानव ने जैसा उत्पात मचाया, चाहे वह जैसा भी मानसिकता हो, वन खनिज तो क्षतिग्रस्त हुई ही हैं। यह सब क्षति मानव से हुई, यह बात समझ में आ गई है। अब क्षतियों को कैसे पूरा किया जाए, उसके पहले क्षति न करने की विधियों को कैसे अपनाया जाए, ऐसी समझदारी की आवश्यकता, अनिर्वायता और अपरिर्हायता आ खड़ी है।
जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था और सहअस्तित्व सहज गति के द्वारा सहज रूप में ही, धरती में जो कुछ भी क्षति हुई है, वह पुनश्च अपने में भर जाने की एक व्यवस्था सहअस्तित्व में रखी गई है। खनिज, लोहा, कोयला और तेल यही सबसे बड़ा अत्याचार का आधार रहा है। इसे गंभीर क्षति माना जा सकता है। इस धरती को संतुलित रखने के लिए जो कुछ भी खनिज और वनस्पति तैयार हो चुके हैं, उनमें संतुलन गुण बना ही है। इसका प्रमाण यही है कि यह धरती चारों अवस्थाओं सहित स्वयं में एक व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में कार्य करता हुआ देखने को मिल रहा है। यह इस प्रकार है कि यह धरती एक सौर व्यूह में, सौर व्यूह अनेक सौर व्यूह में, अनेक सौर व्यूह आकाश गंगा में भागीदारी के रूप में कार्य करता हुआ देखने को मिल रहा है। ब्रह्माण्डीय किरण-विकिरण और ऊष्मा परिवर्तन कार्यकलाप विकास और पूरकता के लिए सहायक है। इस धरती के लिए प्रतिकूल किरण-विकिरण प्रभाव को अनुकूल बना लेने योग्य धरती स्वयं अपने प्रभाव क्षेत्र को बना ली है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मानव को अपने द्वारा किए हुए भूलों को सुधारने के लिए तत्पर होना ही पहला कदम है।
विश्व जन मानस में मानव परंपरा से हुई भूल सुधारने के लिए आवश्यकीय वास्तविक विचारों की एक आवश्यकता बनी ही रही। यह मध्यस्थ दर्शन, सहअस्तित्ववाद,