भौतिकवाद
by A Nagraj
आवर्तनशील अर्थव्यवस्था, व्यवहारवादी समाजशास्त्र और मानव संचेतनावादी मनोविज्ञान के आधार पर मानव सुधार के लिए मानसिकता तैयार कर सकता है। यह मानव के लिए अर्पित हो चुका है। यह दर्शन अपने आप में संपूर्ण आयाम, कोण, दिशा, परिप्रेक्ष्य में नैसर्गिकता, वातावरण, संबंध, संपर्क, स्थिति-गति में, मानव के भ्रमवश पैदा की हुई संपूर्ण समस्याओं का समाधान है। इसलिए यह “समाधानात्मक भौतिकवाद” रासायनिक-भौतिक संतुलन, पूरकता संबंधी तथ्यों पर सहज ही समाधान प्रस्तुत करता है। इसी क्रम में इस धरती के साथ मानव का अत्याचार वन, खनिज के साथ हुआ। उसमें से घातक क्षति खनिज, कोयला एवं खनिज तेल का होना, स्पष्ट किया जा चुका है।
धरती पर मानव से हुई क्षति की पूर्ति के लिए सौर ऊर्जा, प्रवाह शक्तियों के प्रति शक्तियों की उपयोगिता विधि में जागृत होने पर बल दिया। सूर्य ऊर्जा को रश्मि से किरण विधि में ऊष्मा का संग्रहण विधि से उपयोग करने की तकनीकी, अभी कुछ दूरी तक विकसित हुई है। जिसका और अधिक विकास होना और लोकमानस तक लोकव्यापी करना - यह आवश्यक कार्य है। प्रवाह शक्ति से बिजली तैयार करने के कार्यक्रम को सर्वोपरि मानकर जुड़ना आवश्यक है। इस कार्य में पहले से ही आदमी पारंगत हुए। इसमें आवश्यकीय बदलाव लाने में आज का मानव समर्थ है, महत्वपूर्ण बिंदु यही है। जहाँ तक तेल और तेल से चलने वाले यंत्रों की बात है, जिसके लिए खनिज तेल की अपरिहार्यता बनी रही है, इसके लिए धरती की सतह में तैलीय वृक्षों की पहचान, सर्वाधिक तेल उत्पन्न करने वाले वृक्षों की पहचान, सर्वाधिक तेल उत्पन्न करने वाले वृक्षों का वृक्षारोपण करना आवश्यक है। प्रत्येक कास्तकार अपनी आवश्यकतानुसार तेल उत्पादन करने का कार्यक्रम स्थापित करे, यह आवश्यक है।
इसी के साथ साथ यह भी आवश्यक है कि जहाँ तक भवन निर्माण कार्य हैं, उसमें लकड़ी की आवश्यकता को तब तक न्यूनतम किया जाय जब तक जंगल समृद्ध न हो जायें। सर्वाधिक आवश्यक है, घरों को केवल मिट्टी और ऊष्मा के संयोग के आधार पर बनी हुई ईंट, खप्पर बनाने की तकनीकी को, अभ्यास को, लोकव्यापीकरण कर लेना। इसी के आधार पर घर-मकान बनाने में जंगलों से जो अपेक्षाएँ सहायक साधन के रूप में सोचते रहे, करते आए, इसका निराकरण ऊपर कहे अनुसार स्पष्ट होता है।