भौतिकवाद

by A Nagraj

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ii) स्वनारी/स्वपुरुष से स्पष्ट है कि विवाह पूर्वक प्राप्त दाम्पत्य संबंध :- यह सब व्यवस्था के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को प्रमाणित होने और समग्र व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करने के क्रम में विवाह संबंध संयत होता है। दांपत्य संबंध में ही यौवन यौन संबंध संयत, सुरक्षित होता है। जबकि भोग, बहुभोग, अतिभोग क्रम में लिप्त हर मानव असंयत होना पाया गया। इसकी अंतिम परिणित क्रूरता ही निकली अथवा दीनता हुई। अभी तक इतिहास के अनुसार बहुयौन, यौन भोग के लिए मानव का राक्षस अथवा पशु जैसे वर्तना आवश्यक है। यह इतिहास में अथवा वर्तमान में भी देखा जाता है।

iii) दया :- अपने स्वरुप में जीवन जागृति सहज प्रामाणिकता क्रम में होने वाली एक अभिव्यक्ति है। दया सहज मानवीयता की अभिव्यक्ति का आंकलन व प्रमाण मानव में ही हो पाता है। क्षमता, योग्यता, पात्रता के अनुरुप वस्तु सुलभता की मूल्यांकन क्रिया है। पात्रता और व्यक्तित्व संतुलन में ही मानवीयता पूर्ण आचरण को मानव प्रमाणित कर पाता है। इसी सत्यतावश हर मानव का ऐसा मूल्यांकन व आचरण क्रम में प्रमाणित होना एक आवश्यकता है। इसी आधार पर पात्रता के अनुरुप वस्तु सहज उपलब्धि कार्य में अपने तन, मन, धन को अर्पित करता है। यही दया का तात्पर्य है। हर मानव में मानवीयता सहज पात्रता रहता ही है। मानवत्व रुपी वस्तु का निर्धारण व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी के अर्थ में और प्रामाणिकता और स्वानुशासन को व्यक्त करने के अर्थ में ध्रुवीकृत होता है। इन ध्रुवों के मध्य में जो-जो वस्तुएँ मानव के पास होना चाहिए वह सब पात्रता के अनुरुप समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व प्राप्ति सहज वस्तुएँ हैं। संपूर्ण वस्तु जो मानवीय व्यवस्था में प्रमाणित होता है वह समाधान, समृद्घि, अभय और सहअस्तित्व है। शरीर यात्रा काल से इन चारों वस्तुओं को अथवा चारों वस्तुओं के लिए संप्राप्ति योग्य पात्रता मानव में जीवन सहज रूप में रहती ही हैं। इस प्रकार शरीर यात्रा काल में ही, प्रत्येक मानव संतान दया का पात्र रहता ही है। परंपरा में उन वस्तुओं को दया पूर्वक पीढ़ी से पीढ़ी को समर्पित किया जाता है। परंपरा में जो वस्तुएँ स्थापित करना है वह उसमें होने मात्र से ही आगे पीढ़ी में स्वाभाविक रूप में पात्रता के अनुरुप वस्तु सुलभ होती है।

इस प्रकार यह तथ्य समझ में आता है कि परंपरा में ही दया पूर्वक कार्य-व्यवहार का मूल्यांकन हो पाता है और प्रयोजन सिद्घ हो जाता है। मूल्यांकन का तात्पर्य प्रत्येक