भौतिकवाद

by A Nagraj

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लाभालाभात्मक तुलन का कार्य रूप है कम देना, ज्यादा लेना की इच्छा, विचार, आशा से संबंद्घ रहता है। इसी क्रम में लाभोन्माद तक लाभोन्मादी व्यापारवाद को मानव परंपरा ने अपनाया है।

ऊपर कही गई तीनों दृष्टियाँ (तुलन) बिना सही समझदारी के भी अधिकांश व्यक्तियों में क्रियाशील रहती हैं। ऐसी तीनों दृष्टियाँ जीवों में भी किसी अंश में क्रियाशील होना, देखने को मिलती हैं। मौलिक रूप में जागृत मानव में कार्य करने वाली क्रियाशील दृष्टियाँ है, वे दृष्टियाँ है न्याय-अन्याय, धर्म-अधर्म और सत्य-असत्य। मानव परपंरा में सहज रूप में जागृति और इनकी निरंतरता ही जागृति का मतलब है। संबंधों को पहचानना, मूल्यों को निर्वाह करना तथा मूल्यांकन क्रिया व उभय तृप्ति का होना अपने रूप में न्याय है। इस क्रम में न्याय सबके लिए वांछित रहते हुए परंपरागत विधि से सर्व सुलभ होने की स्थिति तथा प्रमाण, किसी परंपरा में देखने को नहीं मिलता है क्योंकि न्याय संहिता व न्यायालयों में फैसला करते है, न्याय नहीं। यह स्वाभाविक रूप में मानववादी चिंतन क्रम में दृष्टिगोचर होता है।

व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, अतंर्राष्ट्र जैसे परिप्रेक्ष्यों में सामरस्यता आवश्यक हुई। मानव में पाई जाने वाली प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ, न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य रुपी दृष्टिकोणों में सामरस्यता आवश्यक हुई। परिवार, समाज, राज्य, व्यवस्था प्रामाणिकता सहज निश्चित दिशा में सामरस्यता के प्रति परिशीलन करना, पुनर्विचार करना, संतुलित ध्रुवीकृत विधि से निष्कर्षों को पाना आवश्यक हुआ। इसी आधार पर कल्पना, तर्क, विज्ञान हुआ।

प्रत्येक परिवार में उत्पादन-कार्य संपन्न होता हुआ देखने को मिलता है अथवा इसकी आवश्यकता इस धरती पर सभी स्थितियों में प्रमाणित है।

मानव में, से, के लिए जागृति अथवा जागृति पूर्णता ही लक्ष्य है। इसलिए जागृति की ओर दिशा निर्देशित होना सामाजिकता है। यह जागृति सहज लक्ष्य सर्वमानव में पाई जाने वाली संचेतना, संचेतना सहज अपेक्षा रुपी तृप्ति और उसकी निरंतरता के अर्थ में पहचाना गया है। मानव संचेतना जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में क्रियारत होना पाया जाता है। जानने, मानने का तृप्ति बिंदु अस्तित्व में अनुभूति और उसके प्रमाण रूप में स्वानुशासन सहज रूप में अक्षुण्ण होता है। जीवन ज्ञान,