भौतिकवाद
by A Nagraj
परिवार मानव के रूप में परस्पर पहचानने और निर्वाह करने में अक्षुण्णता है। इसका सहज अर्थ यही हुआ- मानवीयता का लोक व्यापीकरण तथा व्यवस्था परंपरा में भागीदारी को निर्वाह करना। प्रत्येक व्यक्ति दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करने योग्य योग्यता से संपन्न रहते हैं। फलस्वरुप भावी संतानों में अथवा आगत पीढ़ी में समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व प्रमाणित होना सहज है।
परंपरा में, सर्वशुभ का स्रोत न रहते हुए भी, कोई न कोई मानव, किसी-किसी समुदाय परंपरा में सर्वशुभ संबंधी कामनाओं की पुष्टि करते रहे हैं। अभिव्यक्ति को, प्रमाणित करता है। परंपरा जितना जागृत रहता है, उससे अधिक जागृत व्यक्ति ने उन-उन परंपराओं में शरीर यात्रा का निर्वाह किया और परंपरा से अधिक जागृति को व्यक्त किया। यही क्रम आज भी है। वर्तमान परंपराओं से अधिक जागृति सहज अभिव्यक्ति और संप्रेषणा की प्रस्तुति स्वयं “समाधानात्मक भौतिकवाद” है। इससे यह पता चलता है कि, मानव परंपरा अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में जब तक स्थापित नहीं हो जावेगा, तब तक समुदाय परंपरा से अधिक जागृत मानव होता ही रहेगा। इस गवाही से यह समझ में आता है कि जीवन सहज रूप में हर व्यक्ति जागृति के लिए प्रकारान्तर से प्रयास करते ही रहता है।
iv) तन, मन, धन रुपी अर्थ की सुरक्षा एवं सदुपयोग :- मनुष्य तन, मन, धन रुपी अर्थ का सदुपयोग करता ही है। यह क्रिया मानव में ही होना पाया जाता है। तन का स्वरुप सबको समझ में आ गया है - पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों के क्रियाकलाप। मन का स्वरुप - जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन, मानवीयता पूर्ण आचरण संपन्न मानसिकता से है। कम से कम जीवन ज्ञान संपन्न मानसिकता से है। जीवन ज्ञान संपन्नता से ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी होना संभव हुआ। जीवन ज्ञान संपन्नता ही निर्भ्रमता का द्योतक होना पाया गया। इसी आधार पर ऐसी ज्ञान संपन्न मानसिकता और स्वस्थ शरीर के संयोग से ही ये तथ्य प्रस्तुत होते हैं। इसी के साथ स्वधन का (श्रम नियोजन पूर्वक प्राप्त जो कुछ भी धन रहता है, उन सब का) सदुपयोग, सुरक्षा प्रत्येक मानव चाहता है। भ्रमित मानव भी सुरक्षा चाहता है, जबकि निर्भ्रम मानव चाहता भी है, करता भी है। ऐसे सदुपयोग को, सुरक्षा को देखा गया है, परखा गया है। इसे इस प्रकार पहचाना जा सकता है कि:-