भौतिकवाद
by A Nagraj
अस्तु, इसका विकल्प समाधान युग का आरंभ होना है, जो स्वयं व्यवस्था के रूप में पल्लवित, पुष्पित व फलित होगा ही।
(7) धार्मिक इतिहास
विगत के अवलोकन से यह पता चलता है कि राजगद्दी के साथ धर्मगद्दी और धर्मगद्दी के साथ राजगद्दी ओत-प्रोत रहे है तथा एक-दूसरे के साथ शासन और नीति के आधार पर तालमेल बनाये रखने के मौलिक प्रयास रहे है यह लिखित इतिहासों से स्पष्ट होता है ।
धर्म का मूल तत्व ईश्वर, आत्मा, ईश्वर वाक्य, ईश्वर आज्ञा है- ऐसा माना गया है । जबकि ईश्वर अभी तक रहस्यमय है अथवा रहस्य में छुपा हुआ है। ये सब ईश्वर आज्ञाएँ ईश्वरवाणी के रूप में, कितने ही मूल ग्रंथों में, पावन ग्रंथों में, कितने ही समुदायों में माना गया हैं। जितने भी प्रकार की ईश्वर वाणियाँ अनेकानेक ग्रंथों में है; वे सब एक रूप, एक अर्थ प्रतिपादित करने वाले नहीं हैं। इस कारण कोई पावन ग्रंथ सार्वभौम नहीं हो पाया। कोई भी ऐसा पावन ग्रंथ अध्यवसायिक विधि से अर्थात् रहस्य विहीन यर्थाथता, सत्यता, वास्तविकता पूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति सम्मत विधि से उसे अध्ययनगम्य नहीं करा पाया।
पहले ही ईश्वर रहस्यमय रहा। रहस्य पर आधारित सभी पावन ग्रंथ एक-दूसरे से असहमत हुए। फलस्वरुप वाद विवाद हुआ जिसकी अंतिम परिणति झगड़ा और युद्घ के रूप में हुई। युद्घ के लिए राजाश्रय की आवश्यकता रहा। इस प्रकार पावन ग्रंथ रुपी धर्म-संविधान भी वाद-विवाद का केन्द्र बना। हर आदमी किसी न किसी धर्म संविधान और राज्य संविधान में अर्पित होते ही आया। धर्म तथा राज्य संविधान भिन्न भिन्न रहे। इसका फल यही निकला कि हर व्यक्ति दूसरे किसी पावन ग्रंथ को अथवा धर्म संविधान को मानने वाले के साथ वाद विवाद करते रहा। यही एक मात्र धार्मिक कार्य हो गया। इस विधि से हर व्यक्ति अपने-पराये की दीवाल बनाने वाला शिल्पी हो गया।
फलस्वरुप सामान्य जन मानस अपने-पराये की मानसिकता के साथ जीने को बाध्य हुआ। इसी मानसिकता के साथ जब-तब दूसरे धर्म संविधानों को अनुसरण करने वालों के साथ झड़प होते ही रही। आदमी, आदमी को मारने के लिए, वध करने के लिए अपने