भौतिकवाद

by A Nagraj

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कारणों से संघर्ष को अपनाया गया। आज की स्थिति में तथाकथित धर्म का डूबना एक अनिवार्य स्थिति बन चुकी है।

ध्यान देने का बात यह है कि व्यक्ति के रूप में प्रत्येक मानव सुख शांति चाहता भी है और इसे कहता भी हैं। जब वही आदमी किसी तथाकथित धर्म, संप्रदाय, मत, पंथ, रुढ़ियों के आधार पर बात करता है तब “और अधिक संग्रह” और “भोगवादी कार्यकलाप” के संबंध में जब बोलता है, तब अपने-पराए की दीवाल बनाता ही है। सुख शांति के संबंध में कुछ भी बात करता है, कितनी भी बातें करता है, तब अपने-पराये की दीवाल नहीं बन पाता है। अपितु सुख शांति की अपेक्षा सभी मानवों में है, इसे स्वीकारता है।

ऐतिहासिक विरोधाभास यही है कि सभी धर्म परंपराएँ सुख शांति को ध्यान में रखते हुए धर्म परंपराओं को आरंभ करती हैं। हर पावन ग्रंथ की यही मंशा है। इतना ही नहीं हर राज्य संविधान की मंशा भी यही है । किसी उस धर्म और राज्य के पक्ष में जिसमें वह समर्पित है जब आदमी बात करता है तब विरोधात्मक दीवाल चुनता ही है फलत: अपने पराये के भेद बन ही जाते है। जबकि व्यक्ति कोई पावन ग्रंथ नहीं हैं। सामान्य व्यक्ति के रूप में जब वह प्रस्तुत होता है तब उनको सुख शांति की आवश्यकता सभी मानवों में समान रूप में दिखाई पड़ती है। इससे स्पष्ट होता है कि धर्म ग्रंथों के प्रभाव के बिना जब मानव होता है तब उनकी कल्पनाशीलता और विचारशीलता विशालता की ओर दौड़ती दिखाई पड़ती है। वही व्यक्ति जब किसी धार्मिक ग्रंथ के दायरे में आ जाता है तब उसी व्यक्ति में पाई जाने वाली कल्पनाशीलता और विचारशीलता संकीर्ण होते हुए देखने को मिलती है।

इस तथ्य के आधार पर विश्व मानव ऐसा एक सद् बुद्धि का प्रयोग कर सकता है मानव सहज अपेक्षा रुपी सुख शांति सबके लिए सुलभ हो ऐसा निश्चय कर सकता है। तब विविध समुदायों में मान्य, सभी पावन ग्रंथों को सार्वभौम लक्ष्य के आधार पर पुनर्विचार कर सकता है।

सुख-शांति के प्रमाण है समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व। इस आधार पर सुख-शांति को पहचान सकते है और मूल्याँकन कर सकते हैं। इस विधि से देखें तब संभव है कि सब में एक सामरस्यात्मक सूत्र निकल जाये। यदि नहीं निकलता है तब अस्तित्व को परम सत्य के रूप में स्वीकारते हुए- मानव चिंतन करने वाला है - सुख शांति को