भौतिकवाद
by A Nagraj
पराये के आधार पर मानसिकता को तैयार करते आया। आज भी इस प्रकार की घटनाएँ बारबार देखने को मिल रही हैं। इस अपने पराये की दीवाल बनाने के धंधे में सारा राज्य प्रबंध (संविधान), संपूर्ण पावन धर्म संविधान सिमट गया। अब एक ही धंधा सभी समुदायों के साथ बचा है वह है एक दूसरे समुदाय को कैसे मिटाए। इसके अलावा और कोई चिंतन मानव मानस में जीता जागता दिखता नहीं है। इसी के साथ संग्रह भी समाया हैं। विकसित देश की समीक्षा समर शक्ति के आधार पर ही विश्व स्तरीय संस्थाओं में हो चुकी है अब धर्म कहलाने वाले आधारों पर भी मारपीट ही एक मात्र कार्यक्रम रह गया है। इसके लिए भी बहुत सारा धन चाहिए ही। उसके लिए अनेक प्रकार से धन संचय करने का अनुसंधान भी कर लिया गया हैं।
इस अनुसंधान की समीक्षा अर्थात् धन संचय की समीक्षा शोषण, द्रोह, लूट-खसोट की चौखट में स्पष्ट है। यह तो सिद्घांत ही है कि किसी का शोषण किये बिना धन संचय नहीं होता। इस क्रम में मानव अपनी संपूर्ण शक्तियों अर्थात् कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता, विचारशीलता जैसी मौलिक शक्तियों को दाँव पर लगा चुका है। यह मौलिक इस प्रकार से है कि केवल मानव में ही कर्मस्वतंत्रता कल्पनाशीलता और विचारशीलता पाई जाती हैं। तथा प्रत्येक मानव व्यवहार प्रयोग में इसे प्रमाणित करता है। और किसी अवस्था में अर्थात् पदार्थावस्था, प्राणावस्था व जीवावस्था में ऐसे प्रयोग व्यवहार नहीं दिख पड़ते हैं। इसीलिए मानव में यह प्रमाणित होना मौलिक है। इस प्रमाण से मानव में अक्षय शक्ति का होना प्रमाणित होता है।
आर्थिक और राजनैतिक संचेतना के आधार पर मानव संघर्षशील है ही। धार्मिक चेतना अर्थात् धार्मिक ज्ञान अथवा धर्म कहलाने वाले ज्ञान कम से कम कल्पनाशीलता और विचारशीलता के रूप में कर्म स्वतंत्रता के आधार पर जितना और जैसा प्रमाणित होता है, उतने के आधार पर धर्म कहलाने वाले सभी मुद्दे संघर्ष में घिर आए। स्पष्ट भाषा में सभी प्रकार के धर्म कहलाने वाले सभी मुद्दे संघर्ष के गिरफ्त में हो गए। अर्थात् सभी प्रकार के धार्मिक कहलाने वाले मानव अथवा विविध प्रकार के धर्म का नाम लेने वाले मानव संघर्ष के लिए बाध्य हो गये। सभी धर्मों के मूल में प्रतिपादित पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक से आस्था घट गई। साथ ही संघर्ष और भोग लिप्सा प्रजवलित होती ही गई। इन्हीं