भौतिकवाद
by A Nagraj
राजनैतिक इतिहास में उल्लेखनीय बात यह है कि सबसे पहले ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते हुए शक्ति केन्द्रित शासन की कल्पना दी गई। तत्कालीन तथाकथित ज्ञानियों, बुद्घिजीवियों से ऐसा ही करना बन पाया। इस परिकल्पना का मूल रूप “ईश्वर स्वयं रहस्य ही रहा।” ऐसी रहस्यमयी मान्यता का आधार केवल मानव की कल्पनाशीलता व कर्म स्वतंत्रता ही रही। रहस्यमय ईश्वर और मानव की कल्पनाशीलता के साथ आस्था सूत्र को मिलाकर संपूर्ण ताना-बाना बन गया। इससे मानव कुल दुविधाओं का सामना करता ही आया।
दूसरा, जैसे ही विज्ञान युग आया पुण्य से स्वर्ग में मिलने वाली वर्णित सभी प्रकार के पुण्य भोग गली-गली में, बाजारों में, प्रासादों में, भवनों में, झोपड़ियों में, मैदानों और सड़कों में खुले आम मिलने लगा। पहले से पुण्य भोग के रूप में भोग लिप्सा को पैदा किये ही थे। इस भूमिका को सभी प्रकार के धर्म ग्रन्थों ने पूरा कर लिया था; इसलिए इंतजार के बिना (अर्थात् मरने के बाद स्वर्ग में बढ़िया विविध भोग मिलेंगे तब तक इंतजार करो) तत्काल नगद मिलने वाले भोगों के प्रति लोक मानस लपककर उत्सुक हुआ। इसमें यह भी पहलू उभर आया कि जितनी बातों के लिए धार्मिक राजनीति में मना किया गया और उसे ‘पाप’ कहा गया जैसे चोरी-बदमाशी, लूट-खसोट, शोषण-संग्रह, इसी ‘पाप’ को करने वाले विज्ञान युग में सभी भोगों को नगद पा लिए।
आज की स्थिति यही है कि परस्पर सभी संबंधों में धन को प्रधान मान लिया गया। फलत: धन के लिए प्रयास देखा जा रहा है। यह भी देखने को मिला कि शुद्घ पानी व शुद्घ हवा के लिए भी पैसा चाहिए। इस प्रकार शरीर यात्रा के हर पहलू में पैसा प्रधान हो गया। फलस्वरुप सभी प्रकार के राजतंत्र आर्थिक राजनीति में अन्तरित हो गये।
इस संघर्ष युग में “धार्मिक राजनीति” का पराभव हुआ और “आर्थिक राजनीति” की पराकाष्ठा हुई। इसमें एक और निष्कर्ष निकल कर आता है कि इस आर्थिक राजनीति संघर्ष युग और गणतंत्र प्रणाली के चलते शासन की संभावनाएँ टूट चुकी हैं। शासन की बुनियाद रहस्यमय होने से, राजगद्दी में बैठे हुए व्यक्ति के रहस्योद् घाटन हो जाने से ईश्वर स्वयं न तो किसी को मारने दौड़ता है न ही बचाने दौड़ता है - यह स्पष्ट हो जाने से तथा हर व्यक्ति संग्रह का उमीदवार होने से शासन की बुनियाद ही हिल चुकी हैं।