भौतिकवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 202

9) संकरीकरण और परंपरा

इस शताब्दी में, सकंरीकरण प्रक्रिया का कर्माभ्यास कर, मानव ने देखा जहाँ तक संकरीकरण कर विविध अंकुर प्रत्यारोपण विधि और तने का प्रत्यारोपण विधि - इन दो विधियों में फूल और फल में, दोनों में प्रयोग हुए। फल जाति में अंकुर प्रत्यारोपण और तने का प्रत्यारोपण, दोनों सफल हुए। इसमें संकर विधि भी अपनाई गई जैसे - संतरा, नारंगी, सेब, बेर आदि विधियों से उपलब्धियाँ हुई। अभी तक उनमें से अधिकांश, अपनी वंश परंपरा को बनाये रखने में सक्षम नहीं दिखाई पड़ते हैं। जैसे किसी प्रत्यारोपित विधि में आया हुआ आम वृक्ष, उसकी गुठली से उसी प्रकार का आम तैयार नहीं हुआ। आम वृक्ष की यह प्रक्रिया, बहुत पहले से भी रही। इसी प्रकार सेब, अमरूद, अनासपत्ती, आडू आदि फलों में और नींबू में देखा गया। संतरा, नींबू, अमरूद में श्रेष्ठ प्रजाति के बीज डालने पर उसी प्रजाति के फल न आने की स्थिति में, अंकुर और तने को बदलने की प्रक्रिया में मानव सफल हुआ है। तना जो प्रत्यारोपित रहता है, अंकुर जो प्रत्यारोपित रहता है, उसी में होने वाले फलों को सफल रूप में होता हुआ देखा गया।

जहाँ तक पुष्पों में जिन भी विधियों को अपनाया गया, उसमें आकार-प्रकार में वांछित स्वरुप प्रत्यारोपण रंग, रूप (आकार) प्राप्त किया गया। साथ ही यह भी देखने को मिला कि इन प्रत्यारोपण विधियों से लगी हुई पुष्पों में सुगंध की क्षति होती गई। साथ ही मकरन्द और पराग गुणवत्ता में क्षति हुई, अत: प्रत्यारोपण सफल नहीं हुआ। फलों में तो यही देखने को मिला है कि प्रत्यारोपण से प्राप्त फल और फूल अपने वंश को बना नहीं पातें है अर्थात् अपने बीजानुकूल को नहीं बना पाते हैं। पीढ़ी से पीढ़ी प्रत्यारोपण की आवश्यकता बनी रहती है। फल फूलों में यह संभव भी है।

जीव कोटि में संकरीकरण कर देखा गया। गाय और भैंस जैसे संकरीकरण से वंश को स्थापित करने की भी भूमिका में कार्य हुए। इनकी जलवायु और आहार विधियों में परतंत्रता बढ़ती गई। इसका ख्याल मानव को रखना आवश्यक हो गया। ये अपने में, अपने से प्राकृतिक विधि से अपना पेट भर सकें, अपने प्रयोजन सिद्घ कर सकें, ऐसा नहीं हुआ। इनके अंसतुलित होने की स्थिति में अर्थात् मानव जब कभी भी इनके साथ ध्यान देने में चूकता है, इनमें अंसतुलन होना देखा गया। यह भी देखा गया है कि पशु