भौतिकवाद
by A Nagraj
भी देखा गया है। इसलिए इसमें संतुलन पाने के लिए जैसे-जैसे खेती क्रांति का विस्तार हुआ, गोपालन, पशुपालन संबंध की आवश्यकता, उर्वरक निर्माण कार्यों के लिए उन्नत विधियों को अपनाने की आवश्यकता अनुभव हुई। इसे पहचानने से स्वाभाविक ही इन अम्लीय क्षारीय उर्वरक संकटों से छूटा भी जा सकता है। यद्यपि जैविक उर्वरक में भी अम्ल और क्षार का होना पाया जाता है । यह उसी अनुपात में होता है जिस अनुपात में फसल ग्रहण करता है।
दूसरा, जैविक उर्वरक विधि से प्राप्त अम्ल क्षार पहले से प्राण कोशिकाओं से रचित रचनाओं से सुपाचित होना पाया जाता है। इस प्रकार जैविक और वनस्पतिजन्य उर्वरक विधि प्रणाली से रासायनिक आवर्तनशीलता सहज रूप में व्यवस्थित रहती है जबकि कृत्रिम विधि से खनिजजन्य अम्ल-क्षार विधि से जितने भी पदार्थ एवं द्रव्य है, यह उत्तेजनात्मक विधि से प्रभाव डालते हैं। क्षणिक रूप में उत्तेजना प्रदान करने के लिए जितने अम्ल और क्षार के संयोग की आवश्यकता पड़ती है, वह सर्वाधिक मात्रा में धरती को अम्लीय एवं क्षारीय बनाता है। यह अपव्यय रहता ही है। इसलिए धरती का विकृत होना पाया जाता है। जबकि उर्वरकीय होना इस धरती के लिए आवश्यक रहता है। इस प्रकार धरती को कृत्रिमतापूर्वक मदद करने गए एक संविधान की प्रक्रिया का वर्णन ऊपर प्रस्तुत किया गया है। इससे पता चलता है कि इस अम्लीय-क्षारीय उर्वरक विधि (रासायनिक खाद) से धरती को ही बरबाद करना है। पूरी धरती के अम्ल और क्षार को आज के लाभोन्माद के आधार पर खेत में बिछा दें, यह कहाँ तक न्याय होगा? आगे की पीढ़ी क्या करेगी?
इस प्रकार मानव अपने ही लाभोन्मादी, कामोन्मादी और भोगोन्मादी भ्रम जाल में फँस कर अपनी ही आगे पीढ़ी के लिए घातक सिद्घ होते आया है और घातक होने के उपक्रम को अभी भी बनाया जा रहा है। इस प्रकार कृत्रिम उर्वरक (रासायनिक खाद) मानव पंरपरा के लिए और धरती के लिए घातक सिद्घ है, यह स्पष्ट हो गया। यह पदार्थावस्था से विकसित, प्राणावस्था के साथ जो प्राकृतिक वैभव है उसमें कृत्रिमता के संयोग के फलस्वरुप क्या विपत्तियाँ हुई है यह स्पष्ट है। इसी क्रम में यह भी देखा जा रहा है कि टमाटर को बहुत बड़ा बनाया गया परन्तु उसकी आंतरिक पुष्टि तत्व उतनी ही रह गई, जितनी प्राकृतिक रूप में प्राप्त एक छोटे टमाटर में थी। बाकी सब पानी