भौतिकवाद

by A Nagraj

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सहअस्तित्व इस धरती पर मूलत: पदार्थावस्था पर ही प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्थाएँ अविभाज्य रूप में वर्तमान रहती है। ऐसी पदार्थावस्था सहज वस्तुएँ ही मृद, पाषाण, मणि, धातु के रूप में सर्वाधिक मात्रा में व्यवस्थित रहती है - ऐसा पाया जाता है। इन्हीं सत्यतावश मानव ने अपनी कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता को विविध प्रकार से चित्रित करने के प्रयासों में विविध यंत्र, उपकरणों को तैयार किया। आवास, अलंकार, आदि कार्यों को भी समृद्घ बनाया। मानव ने पदार्थावस्था सहज, वस्तुओं के “उपयोग-संयोग विधि” से संपूर्ण यंत्रों को प्राप्त कर लिया है। ये प्राप्त यंत्र एक भी ऐसे नहीं है जो पदार्थावस्था से प्राणावस्था के लिए सहायक हों। दूसरी तरफ मानव ने आवश्यकता से सुविधावादी के रूप में आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरगमन, दूरदर्शन को उपयोग किया। उनमें से सर्वाधिक वस्तुएँ जैसे दूरश्रवण, दूरदर्शन एवं दूरगमन संबधी वस्तुएँ कोई समाधान का आधार नहीं बनी। इसी के साथ आवास अर्थात् सर्वाधिक विशाल मकान बना देने मात्र से वह मकान समाधान का आधार नहीं बनता। बहुत ज्यादा आहार और अलंकार संबधी (अन्न, सोना, चाँदी) द्रव्यों को इकट्ठा कर लेने मात्र से ही ये वस्तुएँ समाधान का आधार बन गई हों ऐसा कुछ नहीं हुआ। सार रूप में, वस्तुओं का संग्रह समाधान का मार्ग नहीं रहा। समाधान का आधार केवल मानव जागृति सहज वैभव ही है।

(6) मानव में समाधान अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में अनुभव व प्रमाण है :-

मानव सहअस्तित्व में इन अंतर्सम्बन्धों को जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में समाधानित होता है। पदार्थावस्था से प्राणावस्था; पूरकता, उदात्तीकरण और प्राणावस्था से पदार्थावस्था के अंर्तसंबंध पूरकता और समृद्घि के रूप में है, यह समाधान है। इसका दृष्टा मानव ही है। प्राणावस्था से जीवावस्था की शरीर रचनाएँ प्राण सूत्र विधि से रचना सूत्र विधि में उदात्तीकरण तथा बीज परंपरा के स्थान पर वंश परंपरा की स्थापना एवं उसकी निरंतरता दिखाई पड़ती है। कोई यंत्र ऐसा देखने को नहीं मिला कि अभी तक अथक प्रयास द्वारा बीजों से गुणात्मक परिर्वतन कर सका हो। मात्रा, तादाद में रूप में; गुणवत्ता प्रयोजनों के अर्थ में सार्थक है। स्तुषी पुष्टि हुई, इससे मात्रात्मक परिवर्तन ही हुआ न कि गुणात्मक पुष्टि। जबकि सारा प्रयास गुणात्मक परिवर्तन के लिए ही रहा।