भौतिकवाद
by A Nagraj
इस उद्देश्य से प्राप्त किये गये बीजों से यही प्रमाणित होता है कि इसकी कोई वंश परंपरा सिद्घ नहीं होती है। जहाँ तक मोटाई की बात है, या मात्रा की बात है, यह घटता-बढ़ता रहता है । इस प्रकार सारा परिश्रम वंचना-प्रवंचनाएँ, व्यापार विधि से उन्नत बीज, उन्नत खाद नाम से किसानी पर व्यय अधिकाधिक बढ़ता गया। बड़े-बड़े उद्योग मोटे होते गए, किसान अपने घर को सफेद रंग नहीं दे पाता। कपड़ों में सफेदी ला नहीं पाता, गाड़ी-घोड़ा लाना तो दूर की बात रही। किसानों में वही किसान चतुर माने जाते है जो किसानी के अतिरिक्त व्यापार विधि को अपना चुके है। इसलिए आहार प्रयोजन के लिए सही उत्पादन कार्य किसानी ही है। किसान सही समृद्घि को अनुभव कर सकें, ऐसी व्यवस्था को पहचानना आवश्यक है।
(7) कृत्रिम विधि से खाद्य उत्पादन बढ़ाने में असफलता। उचित वातावरण से ही यह संभव है:-
अत्याधुनिक बीज शक्ति परिवर्धन कार्यक्रमों के अंतर्गत कितने ही श्रम और साधन नियोजित हुए, उसके अनुरुप कोई और निश्चित परिणाम निकलते नहीं पाया। बीजों के गुणवर्धन के पक्ष में बीजों में प्रयास रहता है। इसको ऐसा भी कहा जा सकता है कि बीज प्रकृति में ही गुणवर्धन का प्रयास बना ही रहता है । इसके लिए अनुकूल वातावरण को स्थापित करना ही सर्वाधिक गुणवर्धन और उसकी निरंतरता की संभावना बनना है। वातावरण में धरती, वायु, उर्वरक, जल और ऊष्मा यह प्रधान तत्व है। इन सब के संयोग से ही बीज अपने जैसे अनेक बीजों में और श्रेष्ठ बीज के रूप में होता है। खनिजीय क्षार और अम्ल तत्वों से जितनी भी खाद मानी जाती है, वह खाद न होकर धरती की सतह को उद्वेलित करने में और पौधे में पुष्टि के स्थान पर पिष्ट को संग्रह करने में अवश्य ही अस्थायी सहायक होता है। इसके विपरीत यह भी देखा गया है कि अम्ल और क्षार संयोग होने वाले रसायन तंत्रणा वश ऊपर कहे प्रकार से धरती और पौधे में तंत्रणा अवश्य होती हैं। इससे सर्वाधिक भाग धरती को क्षारीय और अम्लीय करने में प्रयुक्त हो जाता है।
इस क्रम में सामान्य व्यक्ति को भ्रमवश फसल की उपज में वृद्घि हुई जैसा लगता है। वह सब रासायनिक क्रांति के आधार पर मात्रा बढ़ने के रूप में दिखाई पड़ता है। वे मात्राएँ अंततोगत्वा सर्वाधिक उपयोगी न होते हुए मानव शरीर के लिए प्रतिकूल होना