भौतिकवाद
by A Nagraj
आवश्यकता बन पाती हैं। इसे सफल बनाने के क्रम में प्राकृतिक ऐश्वर्य पर श्रम नियोजन किया जाता है, फलत: वांछित रूप में लोहा मानव को मिलने लगता है। इसको सृजनता नाम दिया गया है। मिट्टी को दीवालों के आकार में, श्रम नियोजन पूर्वक रूप प्रदान किया जाता है इसको सृजनता कहा जाता है। इस प्रकार सभी यंत्रों को बनाना भी प्रकृति सहज वस्तुओं पर श्रम नियोजन पूर्वक वांछित स्वरुप, कल्पित स्वरुप देना ही सृजनता के प्रति अपने संबध और कृत्रिमता से प्राप्त वस्तु, इन दोनों को पहचानता है। इस सृजनता क्रम में, मानव का श्रम नियोजन ही, मुख्य तत्व है। कृत्रिमता विकास और जागृति के लिए प्रतिकूल होता है जबकि सृजनता विकास और जागृति को प्रमाणित करने के लिए पूरक विधि से किया गया कार्य-व्यवहार है।
(3) समृद्घि का आधार सूत्र :-
मनुष्य में श्रम नियोजन की क्षमता, सदा ही बनी रहती हैं। जीवन शक्तियाँ अक्षय है, इस कारण मानव आवश्यकता से अधिक वस्तुओं को निर्मित करने का अधिकार संपन्न है ही। मानव में अक्षय बल और अक्षय शक्ति को पहचाना जाता है, यही सूत्र मानव के समृद्घ होने का आधार है।
(4) सहअस्तित्व में अनुभव सहज समझदारी = समाधान। कृत्रिम कृषि परंपरा, कृत्रिम सड़क आदि निर्माण = निरर्थकता।
समाधान सहित ही समृद्घि का अनुभव होता है। समाधान मूलत: सहअस्तित्व सहज समझदारी है। सहअस्तित्व सहज वैभव है। अस्तित्व ही परम सत्य है। अस्तित्व सहज स्वरुप सत्ता में संपृक्त प्रकृति है। इस प्रकार अस्तित्व सहज समझदारी स्वयं समाधान है, यह त्रिकालाबाध सत्य है। मानव ही समझदारी के साथ जीता है या जीना चाहता है या जीने के लिए बाध्य है क्योंकि समझदारी के बिना मानव का स्वयं को व्यक्त करना संभव नहीं है। हर मानव स्वयं को व्यक्त करना चाहता ही है। समस्या की पीड़ा से मानव पीड़ित होता है। इस ढंग से मानव समस्या को वरता नहीं है या वरना नहीं