भौतिकवाद

by A Nagraj

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8) कृत्रिमता, प्रकृति और सृजनशीलता

कृत्रिमता का स्वरुप:- मानव अपने श्रम नियोजन पूर्वक, प्रकृति में जिस परिवर्तन को लाना चाहता है, वह परिवर्तन परंपरा में सुस्पष्ट नहीं हो, उसको कृत्रिमता के रूप में स्वीकार जाता है।

इसी क्रम में सभी प्रकार के यंत्र और आहार, आवास, अंलकार संबधी वस्तुएँ देखने को मिलती है। सभी यंत्रों का संचालन ईंधन विधि, चुम्बकीय विधि, विद्युतीय विधि के आधार पर देखा जाता है। इन तीनों प्रकार से मानव प्रेरित संचालित यंत्र दूरश्रवण, दूरदर्शन एवं दूरगमन के रूप में भी प्रमाणित है। इन तीनों प्रकार से प्रस्तुत होने वाली इकाई मानव ही है। इसका निर्माता भी मानव है। ऐसे निर्माण कार्यों को सृजनशील कहा जाता है। मानव क्रमागत विधि से अपनी संवेदनशीलता की तृप्ति के लिए दोनों प्रकार की आकांक्षाएँ जो मानव सहज रूप में होती है, उसकी संपूर्ण रूपरेखा को प्रमाणित कर लिया। जैसे - आहार, आवास, अंलकार संबंधी वस्तु और उपकरण। दूसरा दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी वस्तु और उपकरणों को तैयार करने की विधि, प्रक्रिया और प्रमाणों को प्राप्त कर लिया। इसी क्रम में समर तंत्र संबधी यंत्रों को भले प्रकार से प्राप्त कर लिया। परन्तु संवेदनशीलता का तृप्ति बिंदु नहीं मिल पाया। इस सब की प्राप्ति के बाद मानव को “समझना” ही अब मुख्य मुद्दा है। क्योंकि मनुष्य ही सभी प्रकार की आवश्यकता संबंधी वस्तुओं का निर्माता एवं भोक्ता है। संपूर्ण वस्तुओं को उपयोग अथवा सदुपयोग करने के क्रम में ही सामाजिक होना प्रमाणित होता है।

रुचि के अनुरुप जीने की विधि से सार्वभौमता नहीं बन पाती है। रुचियाँ सदैव ही इंद्रिय सन्निकर्ष की सीमा में स्पष्ट हुई है । मानव के जीने का वैभव अथवा मानव सहज जीने का वैभव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था के रूप में प्रमाणित हो पाता है। समुदायों के रूप में जो कुछ भी जीने की विशेषताएँ है, इन सभी साधनों में विशेषकर दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी वस्तुओं का दुरुपयोग करता हुआ ही आदमी दिखाई पड़ता है। दुरुपयोग का तात्पर्य द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्घ कार्यों से अपराध और श्रृंगारिकता के प्रचारों से है, क्योंकि सभी यंत्र गति प्रदान करने के रूप में देखने को मिलते हैं। मनुष्य अपने हाथ-पैर, आँख और शब्दों से जो कुछ भी करते रहा है, उसी की गति को हजारों