भौतिकवाद
by A Nagraj
लाखों गुना बढ़ाने के क्रम में दूरश्रवण, दूरगमन, दूरदर्शन जैसे यंत्रों को उपयोग में लाया जाना मानव परंपरा में प्रचलित हो चुका है। इनमें जो कुछ भी संप्रेषित होगा वह सब मानव की मानसिकता, कार्य और प्रवृतियों का ही गति और चित्रण हैं। प्राचीन काल में प्रवृतियाँ भय, प्रलोभन, आस्था और संघर्ष के रूप में स्पष्ट है। इसमें से प्रलोभन व आस्था मानव में स्वीकृत है भय व संघर्ष को अधिकांश लोग स्वीकारते नहीं है।
(1) कृत्रिमता से गति वृद्घि एवं मानव को न समझने के कारण शक्ति का दुरुपयोग :-
इस विधि से मानव अपने को सामाजिक और व्यवस्था योग्य अभिव्यक्ति के लायक जब तक नहीं हो पाता है, तब तक इन सभी यंत्रों, उपकरणों से समस्याओं की गति अथवा अपराधों की संख्या बढ़ते ही रहती हैं। सामुदायिक विधि से अपने-पराए की मानसिकता से कृत्रिमतापूर्वक मानव सहित प्रकृति पर शासन करने की मानसिकता में केवल अपराध और श्रृंगारिकता ही हैं। यही प्रचार-प्रसार का माध्यम है और उद्देश्य केवल सुविधा संग्रह ही बन पावेगा। इसलिए अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होते पर्यन्त मानव से इन यंत्रों का सदुपयोग करना संभव नहीं हो पायेगा। अस्तु, मानव को समाज और व्यवस्था को भली प्रकार से समझने के उपरान्त ही इन सभी यंत्रों का उपयोग, सदुपयोग विधि से ही हर परिवार को समृद्घि मानव परंपरा के लिए मिलेगा।
(2) कृत्रिमता की परिभाषा और उदाहरण :-
मानव ने ऐसी जितनी भी वस्तुओं को बनाया है, इसी को कृत्रिम कहा जाता है। मुख्य रूप से मानव का श्रम नियोजन जिसमें लग पाता है, जिस संयोग से अर्थात् प्राकृतिक ऐश्वर्य पर मानव का श्रम नियोजन से मानव की चाहत के अनुरुप कार्य संपन्न हो - ऐसी स्थिति को निर्मित कर लेते हैं। इसी को हम कृत्रिमता कहते है जैसे सीमेंट में लोहा मिलाकर घर बना लेते हैं। इसमें सभी वस्तुएँ प्राकृतिक हैं। सभी वस्तुएँ प्राकृतिक होने से सीमेंट बनाने में जो श्रम नियोजन किया, जिसमें वस्तुओं का संयोजन हुआ, फलत: सीमेंट का स्वरुप प्राप्त होता है। इसी उपलब्धि को कृत्रिम कहा जाता है । लोहा अपने स्वरुप में, प्राकृतिक होते हुए मानव में आशित आकार-प्रकार में उसे ढाल लेना ही,