भौतिकवाद
by A Nagraj
हुए भी बहुत दूर-दूर तक दौड़ती हैं। इसी के आधार पर देखना बन पाता है। देखने का तात्पर्य समझना ही है। समझा नहीं तो देखा नहीं। समझने की संपूर्ण वस्तुएँ है-
स्थिति सत्य,
वस्तु स्थिति सत्य,
वस्तुगत सत्य।
स्थिति सत्य अपने आप में सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में वर्तमान है। जिसकी समझदारी अर्थात् दर्शन मानव में, से, के लिए ही संभव व प्रमाणित होता है, जिसमें पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था, ये सभी अवस्थाएँ अविभाज्य रूप में सत्ता में संरक्षित व नियंत्रित रहना पाई जाती हैं।
वस्तु स्थिति सत्य “दिशा, काल, देश” के रूप में स्पष्ट है। परस्परता में दिशा है। इकाई में अनंत कोण हैं। हर वस्तु देश के रूप में उसी के रचना के समान होता है। क्रिया की अवधि, काल के रूप में, अस्तित्व में ही मानवकृत गणना है।
वस्तुगत सत्य प्रत्येक एक में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहित द़ृष्टव्य हैं।
रूप के आधार पर परस्परतायें नियंत्रित रहना परमाणु, अणु, अणु रचित पिंडों में देखने को मिलता है। रूप और गुण के आधार पर संपूर्ण प्राणावस्था की कोषा और कोषाओं से रचित सभी रचनाएँ नियंत्रित रहना स्पष्ट हैं। जीवावस्था के रूप, गुण, स्वभाव के आधार पर नियंत्रित रहना देखने को मिलता है। इसी आधार पर मानव का रूप, गुण, स्वभाव, धर्म के आधार पर नियंत्रित होना समीचीन है।
प्रतिबिम्बन, सहजता से प्रकाशमानता है और इसमें प्रकाश समाया रहता है, जो अनुबिम्बन और प्रतिबिम्बन में वैभव है। वस्तुत: परस्पर सम्मुखता ही है, प्रतिबिम्बन होना और पहचानना। अस्तु, प्रत्येक वस्तु अपनी संपूर्णता के साथ व्यक्त रहता ही है। प्रतिबिम्बन परस्पर भास होने के लिए अति आवश्यकीय तत्व है। प्रतिबिम्बन मध्यस्थ स्थिति का ही द्योतक है। धरती मध्यस्थ स्थिति में है, संपूर्णता के साथ है। इसका प्रतिबिम्बन सभी ओर होता है। इसी प्रकार धरती में जितनी वस्तुऐं हैं सभी अपनी संपूर्णता के साथ प्रतिबिम्बित रहती ही हैं। सूर्य, सौरव्यूह, अनंत सौर व्यूह एक दूसरे पर प्रतिबिम्बित रहते हैं। इस प्रकार प्रतिबिम्बन, परस्पर प्रकाशमानता और प्रकाश का ही