भौतिकवाद
by A Nagraj
प्रभाव क्षेत्र है। यह दोनों क्रिया जड़ प्रकृति में देखने को मिलती हैं। जीव प्रकृति में मूल्यांकन अर्थात् स्वभाव की पहचान जीवों में देखने को मिलती हैं। यह विशेषकर मैत्री और विरोध करने के रूप में स्पष्ट होती है। मानव ज्ञानावस्था सहज वैभव है, इसलिए स्वभावों का मूल्यों के रूप में आदान-प्रदान, धर्म का मूल्यांकन अर्थात् समाधान का मूल्यांकन परस्परता में सहज रूप में होना पाया जाता है। जीवों में, स्वभावों की पहचान अपनी वंश परंपरा में और वंशों की परस्परता में प्रकट होना पाया जाता है।
बिम्ब स्वयं में आकार, आयतन, घन के समान होता है। इकाई का चौखट इसी स्वरुप में होता है अथवा इसकी सीमा इसी स्वरुप में होती है। प्रत्येक एक सभी ओर से सीमित रहता ही है। प्रत्येक एक के सभी ओर सत्ता दिखाई पड़ती है। प्रत्येक एक सत्ता में ही दिखाई पड़ता है, इसलिए घिरा हुआ, डूबा हुआ प्रमाणित होता है। सत्ता पारगामी है। प्रत्येक एक ऊर्जा संपन्न, बल संपन्न और क्रियाशील है। इस आधार पर यह प्रमाणित है। इन प्रकरणों के अलावा और भी एक अद्भुत बात ध्यान में रखने योग्य है कि हर परस्परता में सत्तामयता देखने को मिलती है, जिसको हम शून्य, व्यापक, विशालता, अवकाश आदि नाम दे रखे हैं। यह सब एक ही वस्तु है, जिसकी वास्तविकता वर्तमान और व्यापकता है। व्यापक वस्तु न हो, ऐसी कोई स्थली कहीं नहीं है। यही सत्यता, सत्तामयता स्वयं व्यापक होने के तथ्य को, स्पष्ट करता है।
किसी वस्तु को, किसी वस्तु की अपेक्षा में केवल नापा जा सकता है। नाप-तोल का सभी प्रबंधन, मानव सहज आवश्यकता व कल्पनाशीलता की उपज है। हर वस्तु अपने रूप, गुण, स्वभाव और धर्म तथा उसके वातावरण से संपूर्ण है। आकार, आयतन, घन को नापना संभव है। सभी गुणों को नापना सभव नहीं है। सम, विषम आवेशों को नापना संभव हुआ है। मध्यस्थ बल वर्तमान व स्वभाव गति के मूल में मध्यस्थ शक्ति का होना जाना जाता है । मध्यस्थ शक्ति को नापना संभव नहीं हो पाया है। जबकि मध्यस्थ शक्ति ही नियंत्रक है, इसे मानव समझ और समझा सकता है। इस आधार पर सम, विषम प्रभाव परस्परता में होना देखा जाता है। ऐसी प्रभावन क्रियाकलापों में मात्रात्मक परिवर्तन होना पाया जाता है। ये सब चीजें मानव में दृष्टा विधि से ही समझ में आता है। मानव में न्याय, धर्म, सत्य दृष्टियाँ और कल्पनाएँ भ्रमवश अस्पष्ट रहते