भौतिकवाद
by A Nagraj
6) प्रकाशन और प्रतिबिम्ब
अस्तित्व में प्रत्येक एक प्रकाशमान है। प्रकाशमानता के मूल में सत्ता में संपृक्त बल संपन्न रहना ही है। बल संपन्नता ही प्रत्येक एक में क्रियाशीलता का मूल तत्व है। प्रत्येक क्रिया श्रम, गति, परिणाम के रूप में स्पष्ट है ।
सत्ता अर्थात् स्थिति पूर्ण सत्ता में संपूर्ण वस्तुओं का संपृक्त एवं स्थितिशील होना देखने को मिलता है। ‘स्थिति’ बल का ही द्योतक है। बल स्थिति में होता है। शक्ति गति रूप में वर्तमान है। स्थिति और गति अविभाज्य है। गति ही शक्ति के नाम से ख्यात है। शक्तियाँ सम, विषम, मध्यस्थ रूप में प्रकाशित होती हुई देखने को मिलती हैं। संपूर्ण वस्तु स्थिति का, गति सहित वर्तमान होना पाया जाता है। इसी को “स्थितिशील” नाम दिया गया है। स्थितिशील प्रकृति में विकास बीज समाया रहता है, क्योंकि स्थिति पूर्ण में संपृक्त प्रकृति का पूर्णता में, से, के लिए गर्भित होना सहज है।
(1) बिम्ब का प्रतिबिम्ब :-
सहअस्तित्व सहज रूप में ही अविभाज्य वर्तमान के रूप में स्थितिपूर्णता में स्थितिशीलता वर्तमान होना दिखता है। दूसरे शब्दों में, स्थितिपूर्णता में स्थितिशीलता वर्तमान होना दिखता है। इसी आधार पर हम इस बात को अच्छी तरह समझ सकते हैं कि स्थितिशील प्रकृति का क्रियाशील रहना, इसी में श्रम, गति, परिणाम के रूप में वर्तमान में प्रकाशित व प्रमाणित हैं। अस्तित्व में संपूर्ण भौतिक-रासायनिक वस्तुएँ, परिणामानुषंगीय विधि से, अपने ‘त्व’ सहित व्यवस्था में प्रमाणित व समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में विद्यमान है। व्यवस्था में भागीदार होना नित्य प्रमाणित है। प्रत्येक इकाई रूप, गुण, स्वभाव, धर्म सहज अस्तित्व है। इनका ससम्मुखता में प्रतिबिम्बित, परस्परता में प्रभावित, आदान-प्रदान रत होना और मूल्यांकित होना पाया जाता है।
प्रत्येक में अनंत कोण संपन्नता के आधार पर ससम्मुखता में बिम्ब का प्रतिबिम्ब होना पाया जाता है। परस्परता में प्रतिबिम्बन वस्तु का परस्पर पहचानने का प्रमाण है। गुण, शक्तियों के रूप में एक दूसरे पर प्रभावित करना भी पाया जाता है। यही प्रभाव व