भौतिकवाद
by A Nagraj
उदयशील उद् गमशील बनायें रखता है। इसी की गवाही अज्ञात को ज्ञात करने, अप्राप्त को प्राप्त करने की कल्पना, इच्छा, विचार, साक्षात्कार, बोध व अनुभव के रूप में देखा जाता है। अति महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी अभीप्सा प्रत्येक मानव में प्रकारान्तर से देखने को मिलती हैं। इसी आधार पर प्रत्येक मानव में शुभ चाहने का अधिकार समान रूप में विद्यमान हैं। यह समझ में आने के पश्चात् ही इसकी भरपाई जो अज्ञात है, वह ज्ञात हो सकता है। जो अप्राप्त है, वह प्राप्त हो सकता है। ऐसी स्थिति को सर्व सुलभ करने के लिए परंपरा जागृत होना अपरिहार्य है।
जागृत मानव परंपरा का प्रभाव शिक्षा-संस्कार, संविधान और व्यवस्था के रूप में देखने को मिलता है।
वर्तमान परंपरागत विधियों से अप्राप्ति की प्राप्ति तथा अज्ञात का ज्ञात होना संभव नहीं है। इसलिए अस्तित्व सहज वैभव का चिंतन, साक्षात्कार, विचार, अनुभव, व्यवहार, व्यवस्था, संविधान, अध्ययन बनाम शिक्षा-संस्कार-बनाम दर्शन-ज्ञान सहज रूप में जीना, क्रियारत रहना अनिवार्य हो गया। इस क्रम में अस्तित्व दर्शन, जीवन ज्ञान, मानवीयता पूर्ण आचरण, मानवीय व्यवस्था, मानवीय संविधान, मानवीय शिक्षा, मानवीय संस्कार सर्व सुलभ होने का मार्ग प्रशस्त होता है। इन मूलभूत सिद्घांतों को हृदयंगम करना एक आवश्यकता है। अनुभव पूर्वक मानव के दृष्टा पद प्रतिष्ठा में होने की साक्षी में ही मूलभूत सिद्धांतों को समझा गया है।
1. यह धरती एक (अखण्ड राष्ट्र), राज्य अनेक।
2. सत्ता व्यापक रूप में एक, देवता अनेक।
3. मानव जाति एक, कर्म अनेक।
4. मानव धर्म एक, मत अनेक।
उक्त चार एकता और अनेकता का सिद्घांत समझ में आता है। अस्तित्व सहज प्राकृतिक रूप में अथवा सहअस्तित्व के रूप में एकता अपने आप स्पष्ट है। मानव समुदाय की भ्रमित मान्यताओं एवं इन यथार्थताओं में मतभेद ही समस्या के रूप में स्पष्ट है।
प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित संपूर्ण है। यह धरती भी अपने वातावरण सहित संपूर्ण है। यह भौतिक-रासायनिक समृद्घि योग्य इकाई अपनी स्वभाव गति