भौतिकवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 173

5) मानव की पहचान, महापुरुषों की पहचान

आदिकालीन और अभी अत्याधुनिक कालीन मानव प्रकृति आचरण, प्रमाण संपूर्ण प्रकार से व्यक्तिवादिता की ओर रही है क्योंकि विरक्ति और भक्तिवादी चरित्र भी व्यक्तिवादी होता है। इन दोनों के बीच में जो विविध प्रकार के इतिहास है वे सब प्रकारान्तर में भ्रमात्मक कथाएँ हैं। मानव अभी तक जितने भी समुदाय परंपरा में अपने को पहचानता है, इन सबका एक ही ‘अभिशाप’ रहा है कि अस्तित्व में अपने को अविभाज्य रूप में समग्रता के साथ दर्शन नहीं कर पाना। दूसरा अभिशाप स्वयं को पहचानने की इच्छा रहते हुए भी अपूर्ण रह जाना इसका स्पष्ट स्वरुप यही है कि सच्चाई को पहचानने की गवाही नहीं दे पाना। सामान्य लोग जिन्हें स्वयं को पहचानने की गंध भी नहीं रहती, ऐसे लोग इस मुद्दे पर कई महापुरुषों को आत्मदर्शी, ज्ञानी मान चुके रहते हैं। उल्लेखनीय बात यही है कि सामान्य जन मानस जब कभी भी आस्था का प्रदर्शन कर पाता है, तो उसके मूल में सब मनोकामनाओं के सफल होने की अपेक्षा पाई जाती है। मनोकामनाएँ अधिकांश भय, प्रलोभन, दरिद्रता, पर-पीड़ा, प्राकृतिक विपदा, रोग दुश्मनों का नाश से संबंधित है, इनको आज के लोक मानस में सर्वेक्षण कर सकते हैं। सुविधा संग्रह में सफलता, आजीविका, अध्ययन कार्यों में सफलता, आजीविका में वरिष्ठता, अधिकारों में अधिकाधिक शक्ति (अधिकार) प्राप्त होने के क्रम में भी मनोकामनाओं को सर्वेक्षित किया गया है। सर्वेक्षण करने पर प्रमाणों को पा सकते हैं। यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसके आधार पर आत्मदर्शिता अथवा परम ज्ञान, परम विचार, परम आचरण को समझा जा सकें। इसलिए इन सभी का आधार केवल परंपरागत पावन ग्रंथ शब्द व शास्त्र प्रमाण ही रह जाते हैं। व्यक्ति वर्तमान में प्रमाण नहीं हो पाता है। पावन ग्रंथों की अगम्यता अर्थात् सर्वसुलभ होने में शंकाएँ सदा बनी रहती हैं। इस प्रकार स्वयं पर विश्वास का निश्चित अध्ययन और निश्चित परपंरा नहीं हो पाई। यही मानव सहज आकांक्षा रहते, अपूर्ति की पीड़ा है।

इसका निराकरण और अस्तित्व में अविभाज्य रूप में पहचानने, निर्वाह करने, जानने, मानने की विधि जीवन विद्या से, अस्तित्व दर्शन से और मानवीयता पूर्ण आचरण से परिपूर्ण हो जाता है। यही जागृतिपूर्ण परंपरा का भी वैभव हैं। जीवन को समझने के