भौतिकवाद
by A Nagraj
(14) जानना, मानना, पहचानना ही संस्कार है। संस्कारानुषंगीयता ही मानवीय व्यवस्था का आधार है :-
दृष्टिगोचर, ज्ञान गोचर में से पहले सहअस्तित्व में ही पदार्थावस्था, “त्व” सहित नियम को परिणामानुषंगीय विधि से, संपन्न कर देते हैं। यही पदार्थावस्था के नियमित रहने का तात्पर्य है। प्राणावस्था में नियमित विधि से “त्व” सहित व्यवस्था बीजानुषंगीय प्रक्रिया पूर्वक नियंत्रित रहना पाया जाता है। जीवावस्था अपने “त्व” सहित व्यवस्था को वंशानुषंगीय विधि से संतुलित रूप में प्रमाणित करते हैं। मानव ज्ञानावस्था में एक मौलिक वैभव है। यह वैभव दृष्टा पद व जागृति सहज प्रमाणों के रूप में परंपरा है। ऐसा दृष्टापद जागृति सहज परंपरा में निरंतर सफल होता है। मानव परंपरा संस्कारानुषंगीय अभिव्यक्ति है। वंशानुषंगीयता केवल शरीर तक ही प्रक्रियाबद्घ है। मानव की अभिव्यक्ति जीवन प्रधान है, न कि शरीर प्रधान। यद्यपि शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में ही मानव ख्यात है। जीवन में ही संस्कारों की स्वीकृति और जागृति प्रमाणित होती हैं। संस्कार जानने, मानने, पहचानने और प्रमाण रूप में निर्वाह करने की प्रक्रिया हैं। इसकी जागृति जानना, मानना को पहचानना और निर्वाह करना ही है। संस्कार प्रक्रिया परिवार परंपरा में, से, के लिए प्रदत्त होती है। संस्कार प्रक्रिया का यही प्रमाण है और चेतना विकास मूल्य शिक्षा संस्कार है। इस प्रकार संस्कार परंपरा और विधि प्रक्रिया के रूप में संस्कार स्पष्ट हो जाता है। यही मानव संचेतना सहज महिमा है। मानव का संपूर्ण संस्कार व प्रमाण जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही है। यह निर्भ्रम विधि से न्याय, धर्म, सत्य सहज प्रकाशन है। अर्थात् निर्भ्रम पूर्ण विधि से प्राप्त जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना स्वयं न्याय, धर्म, सत्य का प्रमाण ही है। यही मानवीयतापूर्ण अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन सहज रूप में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी है।
(15) न्याय :-
न्याय = संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति है। मौलिकता न्याय का स्वरुप सहज रूप में ही संबंध, मूल्य और मूल्यांकन ही है। यह मानव संबंध, नैसर्गिक संबंध और उत्पादन सबंध के रूप में स्पष्ट होता है। मानव संबंध व्यवहार सूत्र का स्वरुप हैं। नैसर्गिक संबंध पूरकता सहज सत्यता है। उत्पादन संबंध उपयोगिता सहज सबंध है। इनमें उपयोगिता