भौतिकवाद
by A Nagraj
अनर्थ करता है। संपूर्ण रुचियाँ इंद्रिय सन्निकर्षात्मक रूप में हैं। अर्थात् शरीर के अनुरुप हो ऐसा काम कर देते है। इन्द्रियों के साथ न्याय का स्थान नहीं हैं। न्याय सब चाहते हैं। इन्द्रियों के साथ प्रिय, हित, लाभ ही होता है। प्रियात्मक कार्यकलाप शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध इन्द्रियों को अच्छा लगने के रूप में स्पष्ट है । हित शरीर के लिए उचित-अनुचित के रूप में देखा जाता है। कम देकर अधिक लेने की प्रक्रियाओं को लाभ के रूप में देखा जाता है । यही क्रियाकलाप रुचि मूलक है। प्रिय, हित, लाभ का कहीं तृप्ति बिंदु मिलता नहीं है। शरीर को कितना भी अच्छा रखा जाय, तो भी शरीर की विरचना होती ही है। इन्द्रिय सन्निकर्ष क्रियाकलापों के साथ परेशानी यही है कि जब एक चीज, किसी एक मानव को अच्छी लगती है तो वही चीज दूसरों को बुरी भी लगती है। दूसरा बहुत अच्छा खाने वाले को भी कहीं न कहीं पेट भर जाने की स्थिति आती है, उसके बाद वही खाना खराब लगने लगता है। एक आदमी को खराब लगने की स्थिति में दूसरा आदमी जो भूखा है उसे वही खाना अच्छा लगता है। एक आदमी को एक संवेदना में कितना देर अचछा लगा-बुरा लगा, सबके लिए वैसा होना होता नहीं अत: अच्छा लगना, बुरा लगना सार्वभौम हो नहीं पाता है और लाभ का तृप्ति बिंदु कहीं होता नहीं। संग्रह का तृप्ति बिंदु होता नहीं है, इसलिए लाभ का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं होता, इसलिए यह सार्वभौम नहीं होता। अस्तु, ये जितनी भी चीजें गिनाई गई है, उनके प्रिय, हित, लाभ, भोग, सुविधा, संग्रह के आधार पर व्यवस्था होना संभव नहीं है। इसलिए इस शताब्दी के अंतिम दशक तक सार्वभौम व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी।
नियति सहज विधि से नियम, न्याय, धर्म, सत्य का सार्वभौम होना सहज है। मनुष्य को अनुभव पूर्वक अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा के आधार पर न्याय पूर्ण विधि से प्रस्तुत होना सहज है क्योंकि वह जीवन सहज है। जन्म से ही मानव न्याय का याचक होता है, सही कार्य-व्यवहार करना चाहते है, और सत्य वक्ता होता है। परंपरा से यह अपेक्षा सहज ही रहती है कि प्रत्येक मानव संतान; न्याय प्रदायिक क्षमता से संपन्न हो, सही कार्य-व्यवहार करने योग्य योग्यता से संपन्न हो, सत्य बोध होने की अर्हता प्राप्त करने में सक्षम हो, इसी रूप में सकारात्मक पक्ष स्पष्ट होता है। इसका मतलब यही है कि जागृत परंपरा सहज वैभव यही है, कि प्रत्येक संतान में संबधों, मूल्यों और मूल्यांकन करने का ज्ञान सहज विचार और व्यवहार, अभ्यास सुलभ कार्यों में भागीदारी ही मानवीयतापूर्ण निष्ठा और परंपरा हो। जागृत परंपरा क्रम में प्रत्येक मानव संतान को सही कार्य