भौतिकवाद
by A Nagraj
व्यवहार, ज्ञान, विचार और कर्माभ्यास सहज सुलभ होता है। अस्तित्व जैसा परम सत्य बोध अध्ययन पूर्वक सुलभ होता है। साथ ही जीवन ज्ञान जैसा परम ज्ञान संपन्नता सुलभ अथवा सर्वसुलभ होता है। ऐसी परंपरा ही मानव परंपरा है। ऐसी अर्हता जिन जिन परंपराओं में नहीं है, वे सब मानवीयतापूर्ण परंपरा के रूप में परिवर्तित होने के लिए सहज इच्छुक है अथवा बाध्य है।
(13) अस्तित्व में चार अवस्थाएँ, वंशानुषंगीयता एवं संस्कारानुषंगीयता :-
अस्तित्व सहज रूप में ही सहअस्तित्व, नित्य संबंध स्थिति में ही है क्योंकि पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था- ये संबंधित है ही। संबंध का तात्पर्य ही है, पूर्णता के अर्थ में अनुबंधित रहना। इसके निर्वाह होने के क्रम में चारों अवस्थाओं में विभिन्न रुपों में विधियाँ प्रभावशील है- ऐसा देखने को मिलता है। जैसे- संपूर्ण पदार्थावस्था नियम पूर्वक, संबंधों को निर्वाह करता हुआ देखने को मिलता है। नियम ‘त्व’ सहित व्यवस्था है, यही संतुलन हैं। यह ‘त्व’ सहित व्यवस्था सभी अवस्था में ही सार्थक होता हुआ प्रमाणित है। यह प्रमाण है कि पदार्थावस्था ही प्राणावस्था में उदात्तीकृत हुआ वैभव है। उदात्तीकृत होने का तात्पर्य, रासायनिक वैभव के रूप में परिवर्तित होने से है। क्योंकि पदार्थावस्था की वस्तुएँ स्वयं स्फूर्त विधि से रासायनिक द्रव्यों के रूप में परिवर्तित होती है। फलस्वरुप, प्राणावस्था का वैभव प्रमाणित है। प्राणावस्था का मूल रूप प्राण कोषा एवं उसमें निहित रचना विधि सहित सूत्र और विभिन्न प्रकार की रचनाएँ, बीजानुषंगीय एवं वंशानुषंगीय भेदों में देखने को मिलता है। जीव शरीर एवं मानव शरीर भी प्राण कोशिकाओं से रचित होता है। वे वंशानुषंगीय सूत्रों के आधार पर वैभवित रहते हैं। जीवावस्था और ज्ञानावस्था में जीवन और शरीर संयुक्त साकार रूप है, यह परंपरा देखने को मिलती है। इनमें से मानव परंपरा एक है, जीवों की परंपराएँ अनेक हैं। जीव परंपराएँ अनेक वंशों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। और वंशों के रूप में ही प्रमाण भी हैं। जबकि मानव परंपरा में भी अनेक वंशों के रूप में शरीर रचनाएँ देखने को मिलती है। ये सब संस्कारनुषंगी विधि से, एकरुपता को व्यक्त करते है, करने के लिए, अवसर संपन्न रहते हैं।