भौतिकवाद

by A Nagraj

Back to Books
Page 168

है। इसी के फलस्वरुप परिवार मूलक स्वराज्य और अखण्ड समाज रहना और सार्वभौम व्यवस्था सहज प्रमाणित होना संभव हो जाता है । मानव के जितने भी कार्य-व्यवहार होते है उसके मूल में निर्धारित विचार का होना एक अनिवार्यता है। मानव के द्वारा हर कार्य-व्यवहार के मूल में विचार रहता है, उसकी दो ही अवस्था होती है:-

1. जागृति सहज विचार,

2. भ्रमित विचार।

भ्रमित विचार पूर्वक किए गए सभी कार्य-व्यवहार से समस्याओं की पीड़ा ही स्पष्ट होती हैं। उस स्थिति में मानव सहज ही समाधान को वरता है, न कि समस्या को। यह आते कहाँ से है यह पूछने पर स्पष्ट रूप में यही दिखाई पड़ता है कि भ्रमित परंपराओं वश, मानव न चाहते हुए भी भ्रमित कार्यों को कर देते हैं। जबकि जागृतिपूर्वक सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण कार्य-व्यवहार करता है।

(11) मानव हर हालत में सुख ही चाहता है, न जानते हुए भी समाधान ही चाहता है।

इसके बावजूद समस्या उत्पन्न कर देता है। मानव के चाहने और होने के बीच में जानना, मानना, पहचानना एक आवश्यकता है। समुदाय परंपरा में प्रत्येक व्यक्ति अर्पित रहता है । प्रत्येक समुदाय परंपरा इस दशक तक भ्रमित है, इसका साक्ष्य ही है कि मानव सर्वतोमुखी समाधान, सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज और इनमें पारंगत और भागीदार होने के सारे अध्ययन को और प्रमाणों को शिक्षा पूर्वक संस्कार पूर्वक, संपन्न नहीं कर पाये हैं।

(12) रुचि मूलक कार्यकलापों का सार्वभौम न होना तथा न्याय, धर्म, सत्य का सार्वभौम होना देखा गया।

इसलिए मानव, जीवन सहज रूप में शुभ चाहते हैं। रुचिवश हर समुदाय भ्रमित कार्यों को करता रहा है। जब तक रुचि मूलक विधि से मानव कार्य-व्यवहार करता है, तब तक