भौतिकवाद

by A Nagraj

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और समाधानित रहना देखने को मिलता है । इन सभी तथ्यों में सहअस्तित्व ही परम सौंदर्य, परम सुख एवं परम समाधान और परम सत्य है। अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व है। ऊपर वर्णित विश्लेषणों, निष्कर्षों के आधार पर धर्म और राज्य का मूल रूप सहअस्तित्व नित्य व्यवस्था होना ही इंगित होता है। क्योंकि सहअस्तित्व सहज कार्यकलाप और वैभव ही है संपूर्ण “त्व” सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का ताना-बाना। कोई भी अवस्था और ऐसी कोई इकाई दिखाई नहीं पड़ती है, जो इस ताना-बाना से अलग रहे। खूबी यही है कि सत्ता स्वयं अस्तित्व में अविभाज्य है।

इस प्रकार अस्तित्व अपने में संपूर्ण स्वरुप और वैभव है। यही व्यवस्था है। इसलिए मानव का स्वयं में व्यवस्था होना और व्यवस्था में भागीदारी सहज कार्य में अपने को वैभवित कर पाना ही कर्म-स्वतंत्रता कल्पनाशीलता का तृप्ति बिंदु है। कल्पनाशीलता का तृप्ति स्वराज्य व्यवस्था में हो जाता है । इसकी निरंतरता का सहज वैभव होता है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का वैभव है। इसी में प्रत्येक मानव मानवत्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण प्रस्तुत कर पाता है। यही परिवार मानव होने के आधार पर परिवार मूलक विधि से सर्वसुलभ है, यह समझ में आता है। अस्तु, परिवार मूलक विधि से गुंथा हुआ विश्व परिवार ही, समाज रचना का क्रियाकलाप है और निरंतर गति है। ऐसे परिवार का भी व्यवस्था का स्वरुप होना स्वाभाविक है। व्यवस्था, अपने आप में न्याय, उत्पादन, विनिमय में भागीदारी है। यह परिवार से विश्व परिवार पर्यन्त सूत्रित व्याख्यायित तथ्य है। इन आधारों पर “व्यवस्था समाज का वैभव है और धर्म समाज का स्वरुप है।” मानव का मानवत्व सहित व्यवस्था होना समाज है और समग्र व्यवस्था है - न्याय, उत्पादन, विनिमय में भागीदारी। यही समग्र व्यवस्था का तात्पर्य है। इनकी निरंतरता के लिए दूसरी भाषा में, मानव परंपरा में व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी निरंतर वैभवित होने के लिए, मानवीय शिक्षा-संस्कार और स्वास्थ्य-संयम रुपी स्रोत के साथ ही मानव परंपरा का जागृत वैभव स्पष्ट हो जाती है।

(10) जागृत परंपरा में सर्वतोमुखी समाधान एवं भ्रमित परंपरा द्वारा समस्या :-

मानव परंपरा का अपनी जागृति को प्रमाणित करने के लिए जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिए प्रमाणित रहना आवश्यक