भौतिकवाद
by A Nagraj
दौड़ा नहीं पाता है। इसलिए भी व्यापक नाम देना बनता है। व्यापकता सर्वत्र सर्वथा वर्तमान होनी ही है।
सत्तामयता को भाग-विभाग किया नहीं जा सकता है। इसलिए सत्ता अखण्ड है। सत्तामयता में मानव के निर्भ्रम न होने के कारण ही ईश्वर के नाम से अनेक अटकलें और सविरोधी कल्पनाओं को मानते हुए मानव दिखा। इन समुदायों की परस्परता में जटिलता अर्थात् एक दूसरे समुदाय में मिलने में जटिलता के फलस्वरुप अनेक कुटिलताएँ देखने को मिली। इससे बड़ा भ्रम और क्या होगा? इसकी गवाही विविध प्रकार से, प्रस्तुत मानव इतिहास है।
तीसरा, “मानव जाति एक कर्म अनेक।” मानव जाति का विखंडन संभव नहीं है। विखंडन के लिए प्रयत्न करना ही भ्रम है। भ्रम का परिणाम समस्या, दुख, पीड़ा और भय है। मानव को अनेक जाति मानने की गवाही अनेक परंपरा के रूप में देखने को मिली। यही मूलत: मानव से मानव के प्रताड़ित होने का प्रधान कारण हुआ। इसके विपरीत मानव जाति एक होने की सहज गवाही प्रत्येक मानव में पाई जाने वाली कल्पनाशीलता और कर्म स्वतंत्रता है। जिसको प्रत्येक व्यक्ति में समझा जा सकता है। दूसरा प्रत्येक मानव मनाकार को साकार करने वाला, मन: स्वस्थता का आशावादी और प्रमाणित करने वाला है। यह प्रत्येक व्यक्ति में सर्वेक्षित होता है। इस महिमा की समानता के आधार पर भी मानव जाति का एक होना समझ में आता है। तीसरा, मानव कर्म करते समय स्वतंत्र, फल भोगते समय में परतंत्र है- यह पाया जाता है। प्रत्येक मानव कर्म फलों में, से उसी को वरता है, जो सुख के रूप में परिणित हो जाते हैं। वही कर्म फल सुख के रूप में परिणित होते है जो समाधान रूप में होते हैं। क्येांकि प्रत्येक मानव का प्रत्येक कर्म, फल समस्या या समाधान के रूप में ही प्रमाणित होता है। इन प्रक्रियाओं में भी मानव को समानता के रूप में देख सकते हैं। यह भी मानव जाति के एक होने का आधार है, साक्षी है।
“मानव धर्म एक, मत अनेक”- प्रत्येक मानव सुखी होने के लिए विचार, व्यवहार और अनुभव करने के क्रम में दिखता है। मानव सहज रूप में किये गये सभी कर्मों का फल सुख या दुख में ही परिणित होता है। इसे भली प्रकार से समझा गया है। यह सबको समझ में आता है। इसके साथ यह भी देखा गया है कि न्याय, समाधान (धर्म), सत्य