भौतिकवाद
by A Nagraj
2. सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी,
3. मानवीयता पूर्ण आचरण में, पहचाना जा सकता है।
न कि प्रचलित कामोन्माद, लाभोन्माद एवं भोगोन्माद के आधार पर बेहतरीन जिंदगी को आदमी में देखा जा सकता है। अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था अभी तक प्रस्तावित, स्थापित नहीं हुई है, जिसमें मूल रूप में परम दर्शन, ज्ञान और आचरण प्रमाणित हो सके। व्यक्तियों के स्तर पर (इसलिए) इस बात को चर्चा में लाना संभव हुआ कि कितने भी हमारे समुदायों में लोग विविध प्रकार से भ्रमित हुए है, उन सबके निराकरण विधियों के क्रम में उन्माद और उनके सहायक और उनको तेज बनाने वाले कार्य के रूप में नशाखोरी है। इनमें से कुछ लोग कहते है, हमारा पैसा है, हम पीते है, तुमको क्या दर्द है। लोग कुछ ऐसा भी पूछते है, एक आदमी शराब पिया है, शान्त बैठा है, एक आदमी शराब नहीं पिया है वह भी शान्त बैठा है। इन दोनों में क्या अंतर है? पहले वाला जो अपने पैसे से शराब पीना कहता है, वह जो बात है, रेल में, मोटर में, घर में, शराब पीने के बाद जिस तिस से संभावित व्यर्थ विलाप करता है। उन शराबी के साथ वार्तालाप करना, एक निरर्थकता अथवा कटुता का जन्म होता है। जो सिगरेट, बीड़ी, गांजा, शराब आदि बदबूदार नशे से नशा किया हुआ व्यक्ति भी नशे की हालत में भी नशे के लिए अस्वीकृति उसमें रहती ही हैं। इसके बावजूद कुछ परिवार अपने पैसे से बीड़ी पिये है, शराब पिये है आदि का पक्षधर होना भी पाया गया है। इसका अध्ययन करने पर पता चलता है कि जो नशा करने वाले के आर्थिक अनुग्रह पर जीता हुआ परिवार है, उनमें से कुछ लोग इस प्रकार की वकालत करते हैं।
(8) समस्त तर्कों का उद्देश्य-व्यवस्था। नशाखोरी, व्यवस्था में सहायक नहीं है :-
इसमें मुख्य मुद्दा यह है कि इसमें बहुत सारा वार्तालाप हो सकता है। सारे वार्तालाप का उद्देश्य व्यवस्था एवं व्यवस्था में भागीदारी, मानवीयता पूर्ण आचरण है, यह निश्चित है। जो व्यवस्था में जीता है, ऐसे व्यक्ति में संतुलन सहज स्वाभाविकता बना ही रहता है। प्रकारान्तर से, कोई भी नशा करने के बाद असंतुलित होता ही है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मानव के लिए नशाखोरी, व्यवस्था में सहायक नहीं है। नशा उन्मादों को बढ़ाता है, घटाता नहीं है और प्रत्येक उन्माद अव्यवस्था है। नशा स्वयं उन्माद है।