भौतिकवाद

by A Nagraj

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प्रत्येक मांसाहारी मानव जीवों के वध और हत्या कार्य के साथ सहमति रखता ही है। इस प्रकार यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चाहे वह मांसाहार करें, चाहे शाकाहार, उनका संपादन, उत्पादन और विनिमय कार्यों में प्रत्येक व्यक्ति उन-उन अर्थात् मांसाहार या शाकाहार के साथ सहमत रहता ही है। अस्तु, मांसाहार दुर्बल को सबल द्वारा बलपूर्वक भक्षण करने की प्रक्रिया है।

दुर्बलता सबलता की परीक्षण करने के लिए (1) शरीर और जीवन की सम्मिलित उपस्थिति का रहना एक अनिवार्य स्थिति हैं। इसको प्रत्येक परिस्थिति में परीक्षण किया जा सकता है। जैसे- मानव और बाघ, मानव और बिल्ली, मानव और कुत्ता। इस प्रकार जीवों के साथ मानव को तौला जा सकता है । दूसरी विधि से- बाघ और सूअर, बाघ और भालू, बाघ और बकरी, बाघ और गाय संयोग प्रणालियों से अध्ययन होता है। इन सबमें यही निकलता है कि दुर्बल को सबल द्वारा, बल पूर्वक भक्षण कर लेना ही हिंसा है। (2) इसी क्रम में मानव और घास, मानव और पत्ता आदि संयोगों को देखें। इनमें झाड़-पौधे के साथ जीवन बल नहीं रहता है तथा जीवों व मानवों के शरीर की पुष्टि के लिए आवश्यक तत्व रहता है।

(1) “मानव संचेतना सहज आहार का प्रतिपादन” “आहार जीवन सहज प्रक्रिया (आशा, आकाँक्षा) के आधार पर पहचानने की वस्तु है” :-

जीव शरीर और मानव शरीर के लिए पोषक, संरक्षक तत्व वनस्पतियों में है जिसको जीवन ही देखता है। इनका उपयोग जीव और मानव न भी करें, वह सब धरती के लिए पूरक होना स्पष्ट किया जा चुका है। जीव एवं मानव इसका उपयोग कर शरीर पोषण, संरक्षण करने के बावजूद भी धरती के लिए इनके मल, मूत्र द्वारा पूरकता उतनी ही प्रमाणित होती है। इस प्रकार संतुलन पूर्वक, आवर्तनशील विधि से, जीव और मानव शरीर का पोषण और संरक्षण के लिए समुचित मात्रा और गुण रूप में वनस्पति नैसर्गिक रूप में प्राप्त है। इसको जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना मानव के लिए प्रमुख आवश्यकता है। जिसकी पूर्ति समाधानात्मक भौतिकवाद से बोधगम्य हो जाती है।