भौतिकवाद
by A Nagraj
संतुलन, न्याय-धर्म-सत्य सहज विधि पूर्वक जीना ही सार्वभौमता और अखण्डता सूत्र है।
किसी जीव का वध किये बिना अथवा हत्या किए बिना, मांसाहार संभव नहीं है। जीवन की उपस्थिति भले मूर्छित अवस्था में क्यों न हो, रक्त संचार होना पाया जाता है। जीवन जब शरीर को छोड़ देता है तब रक्त संचार बंद होना शुरु हो जाता है। इस कार्य को हर एक वध कार्य में परीक्षण किया जा सकता है । रक्त संचार क्रम में ही मांस का संरक्षण बना रहता है। रक्त संचार के लिए रक्त परिवर्ती क्रिया भी एक अनिवार्य तंत्र है। यह रस से रक्त में, मलिन रक्त, शुद्घ रक्त में परिवर्तित होता हुआ देखने को मिलता है । ये तंत्रणा शरीर रचना और जीवन के संयोग में जीवन के संचालन क्रम में संतुलित रह पाता है। इससे हम इस निर्णय पर आ सकते है कि जीवनोपयोगी शरीर में ही मांस की संप्राप्ति सटीक होनी देखी जाती है। किसी जीव के दुर्बल रहते, सबल द्वारा उसको बलपूर्वक भक्षण कर लेना ही मांसाहार का स्पष्ट स्वरुप है।
कुछ लोग ऐसा भी तर्क प्रस्तुत करते है मरने के बाद स्वाभाविक रूप से शरीर की गति तो धरती में, मिट्टी में मिलना ही है। उसको खाने में क्या तकलीफ है, ऐसा आराम से पूछते हैं। इसका उत्तर अस्तित्व सहज रूप में इस प्रकार से देखा जाता है कि मानव कायिक, वाचिक, मानसिक रूप में कर्म करता है। इन सबको पुन: तीन-तीन प्रकार से क्रियान्वयन करता है या क्रियान्वयन करने के लिए संभावना बनी रहती हैं। यह इस प्रकार है कि -
- किया हुआ, कराया हुआ, करने के लिए सहमति दिया हुआ हो।
- सोचा गया, सोचवाया गया और सोचने के लिए सहमति दिया गया।
- बोला गया, बोलवाया गया और बोलने के लिए सहमति दिया गया।
इस प्रकार इन नौ (9) प्रकारों से क्रिया-क्रम करते हुए मनुष्य का परीक्षण, निरीक्षण, सर्वेक्षण किया जा सकता है। इस विधि से जीवों के मांसाहार के लिए जो हत्या या वध करते है, वे अलग दिखते हैं। वे अपनी आजीविका के लिए यह कर्म करते हुए अपने को पाते है । यह क्रम से मांस विक्रय और क्रय विधि से भक्षण करने वालों तक पहुँचता है। भक्षण करने वाला भी अपनी सहमति को, वध करने की क्रिया के पक्ष में देता है। उस वध की भी सहमति और उसके प्रमाण रूप में ही मांस को खरीद पाता है। इस प्रकार से