भौतिकवाद
by A Nagraj
है, तब और कौन सा आधार है कि मांसाहार विधि को वैध मानें। केवल शाकाहारी पद्धति भी व्यवस्था का आधार नहीं हो पाया तब मानव संचेतना ही एकमात्र शरण है जो मानवत्व है।
शरीर रचना, रचनाओं की विनियोजन प्रक्रिया और प्रयोजन को पहले इंगित कराया गया है। वनस्पति जगत की रचनाएँ धरती के लिए पूरक हैं। जबकि जीव शरीर और मानव शरीर भी धरती के लिए पूरक हैं। जीव शरीरों में जीवन ही अथवा जीवन की अभिव्यक्ति ही, जीवों और वनस्पतियों को अलग-अलग रूप और पहचान को स्पष्ट कर देता है। इस क्रम में, जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में ही, जीवों और मानव का वर्तमान होना स्पष्ट है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में रहते मानव ही सभी प्रकार से आंकलन करेगा। इस आंकलन क्रम में जीवों के शरीर में जब समृद्घ मेधस की रचना होती है (या हो जाती है) उस स्थिति में ऐसे शरीर को जीवन संचालित करता है। ऐसे शरीर में ही सप्त धातुओं के क्रियाकलाप, एक दूसरे के तालमेल के सहित संपन्न हुआ देखने को मिलता है। सप्त धातुएँ है- 1. रस, 2. मांस, 3. मज्जा, 4. रक्त, 5. स्नायु, 6. हड्डी और 7. वसा। इन धातुओं के रचना क्रम में एक दूसरे की तालमेल वाली संयोजना भी देखने को मिलती हैं। मूत्र तंत्र, गर्भ तंत्र, मल तंत्र, पाचन तंत्र, रस तंत्र, रक्त तंत्र, हृदय तंत्र, फुफ्फुस तंत्र, मेधस तंत्र, ये सब नाड़ियों, नसों, स्रोतसों, पेशियों से गुंथा हुआ दिखाई पड़ता है। इसी से पूरा शरीर तंत्र स्पष्ट होता है। इसमें जीवंतता सबसे पहली शर्त है। जीवंतता सहित ही जीव शरीर और मानव शरीर का संचालन जीवन से हो पाता है।
मानव शरीर अथवा जीव शरीर के साथ जीवन काम करने के लिए पहली शर्त समृद्घ मेधस का रहना बताया जा चुका है। और कौन सा ऐसा पहचानने का बिंदु है जहाँ से जीवन और शरीर का संयोग होना संभव हो जाता है। इसमें इसे भी एक ध्रुव बिंदु के रूप में परवर्ती (शरीर में मेधस तंत्र द्वारा जीवन के संकेतों को ग्रहण करने और जीवन संकेत भेजने का) कार्य संपादित होते रहती है। ऐसे सभी शरीर जीवन संयोग से चलने फिरने योग्य हो पाते है। जिन शरीरों में जीवन के संयोग से ही पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ कार्य कर पाती है, ऐसे शरीर में समृद्घ मेधस का होना पहचाना जा सकता है। इसके अलावा बाकी सभी प्रकार की रचनाएँ स्वेदज होना स्पष्ट है।