भौतिकवाद

by A Nagraj

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अपराध को अपराध से, युद्ध को युद्ध से रोकने के रूप में शक्ति केन्द्रित शासन व्यवस्था आज प्रभावशील है।

इन सबके प्रभावशील रहते अव्यवस्था और समस्याओं का बढ़ना ही देखने को मिला। सार्वभौम व्यवस्था, अखण्ड समाज की रूपरेखा आज तक विचार रूप में भी नहीं आ पाई। मानव पंरपरा में आज तक परंपरा में जो कुछ भी साकार है, वह सब पहले विचार रूप में आया फिर साकार हुआ। अभी तक जो विचार है, वह समस्या कारक ही देखने को मिला। इसीलिए एक विचारणीय बिंदु के रूप में मांसाहार मानसिकता भी समस्या मूलक, समस्या कारक क्यों न हुआ हो? इस प्रकार एक प्रश्न किया जाना संभव है क्योंकि मानव की संपूर्ण समस्याएँ समाधान सहज अपेक्षा के साथ होना पाया जाता है। समाधान का आधार कार्य, उत्पादन, विनिमय, विचार और व्यवहार, अनुभव के आधार पर ही प्रमाणित होता है। इसलिए मानव के व्यवहार में, मूल रूप से आहार-विहार का प्रासंगिक संबंध है। इसलिए भी मांसाहार शाकाहार की समस्या और समाधान पक्षों में परिशीलन करना एक आवश्यक कार्य है । (1) मांसाहार (2) शाकाहार-इसके स्वरुप को समझें। ये दोनों एक है या अलग अलग मानसिकता और वस्तुएँ है? दोनों वस्तुओं का एक ही प्रयोजन है या अलग प्रयोजन है । इसका निर्णय होना आवश्यक समझा गया।

अस्तित्व सहज रूप में हमारे सम्मुख मानवेत्तर प्रकृति के साथ क्रमिक संबंध है। जैसे- पदार्थावस्था का प्राणावस्था के साथ क्रमिक संबंध है। प्राणावस्था से पदार्थावस्था पूरक व क्रमिक संबंध हैं । इसको ऐसा भी कहा जा सकता है कि पदार्थावस्था से प्राणावस्था, प्राणावस्था से जीवावस्था, जीवावस्था से ज्ञानावस्था की रचनाओं में क्रमिक संबंध है। क्योंकि पदार्थावस्था की वस्तुएँ रासायनिक द्रव्य वैभव पूर्वक, प्राणावस्था की संपूर्ण रचनाएँ- अन्न वनस्पतियों के रूप में, जीवावस्था और ज्ञानावस्था की शरीर रचना के रूप में संपन्न हुई, यह स्पष्ट लगता है। इस प्रकार प्राणावस्था के रासायनिक द्रव्य ही वनस्पति, जीव और मानव शरीर रूप में हैं। प्राण कोषा रुपी द्रव्य के रूप में ये सब समान हैं। यह बात स्पष्ट होती है। इसके आधार पर सोचने पर मांसाहार, शाकाहार में दिखने में कोई अंतर नहीं है। संभवत: यही वैज्ञानिक विश्लेषणों का नजरिया भी है। जबकि स्रोत व प्रयोजन के अर्थ में देखने पर स्पष्ट होता है कि इसका विनियोजन विधि में ही भिन्नता है। विनियोजन का तात्पर्य है- विहित विधि से नियोजन।