भौतिकवाद
by A Nagraj
बन पाता है। ऐसी स्थिति में यह विश्लेषण आवश्यक है कि यह आहार मानवीय है अथवा नहीं? पहले से ही इस बात को इंगित करा चुके है कि मानव शरीर भी प्राण कोषाओं से रचित रचना है। मानव में जीवन और शरीर संयुक्त साकार रूप में है। संपन्न शरीरों को जीवन चलाता है, यही जीव कोटि में आते हैं। ऐसे जीव कोटि भूचर, जलचर, नभचर रूप में होना स्पष्ट हो चुका है। अब मानव में मानव शरीर समृद्घ मेधस संपन्न शरीर हैं। इसी मनुष्य में ही कर्मस्वतंत्रता, कल्पनाशीलता प्रकाशित है। यही मानव दृष्टा पद संभावना सहअस्तित्व में अनुभवपूर्वक प्रमाणित होता है। तब तक भ्रमवश भय-प्रलोभन होने के फलस्वरुप मानवेत्तर प्रकृति का शोषण, और दृष्टा पद में होने के फलस्वरुप पोषण करने वाले के रूप में देखने को मिला है।
मानव की शरीर रचना में आंतों की बनावट, नाखूनों और दांतों की बनावट पानी पीने का तरीका शाकाहारी जीवों के रूप में है, इसके बावजूद मानव मांसाहार-मद्यपान भी करता है। मानव इसे समझ ही सकता है कि शाकाहारी मनुष्य भी भ्रमवश असंतुलित होना स्पष्ट है। जबकि मानव का संतुलित रहना नितांत आवश्यक होता ही है। यह तभी संभव है, जब वह अपनी स्वभाव गति में हो। स्वभाव गति का तात्पर्य मानव की मौलिकता मानवत्व ही है। इसी के आधार पर मानव का मूल्यांकन होना स्वाभाविक है। मानव का मांसाहार मद्यपान में व्यस्त होकर स्वयं संतुलित रहना संभव नहीं है। इसी आधार पर दूसरे बिंदु को देखने पर इसकी आवश्यकता अपने आप समझ में आता है। वह दूसरा बिंदु यह है कि व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदार होना प्रत्येक मानव का एक अनिवार्य कार्य है। मानवत्व सहित व्यवस्था के रूप में जीने के लिए शाकाहार ही एक मात्र शरण है। इस बात को समझना भी एक आवश्यकता है।
मांसाहार- इस वर्तमान में-
1. इस धरती पर अधिकांश मानव मांसाहार से संबद्घ हो चुके है।
2. इस धरती पर इस समय में मानव की मान्यता है कि मांसाहार एक अनिवार्य स्थिति है।
3. सबको शाकाहार मिलने में शंका है। उक्त मानसिकता में पनपता हुआ कूटनीतिक राजधर्म, समुदायवादी संस्कार उन्माद, भयवादी शिक्षा, गलती को गलती से,