भौतिकवाद

by A Nagraj

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तो है, इसलिए इन दोनों का मानवीयतापूर्ण मानव से कमजोर होना स्वाभाविक है। क्योंकि मानव का स्वभाव (मौलिकता) धीरता, वीरता, उदारता है। वहीं अमानव का अर्थात पशु और राक्षस मानव का स्वभाव हीनता, दीनता, क्रूरता ही है।

मानव सहज मौलिकता कितनी सुद़ृढ़ है, यह हर एक व्यक्ति को समझ में आता है। इससे पता चलता है कि अमानवीयता की मुक्ति स्थली, स्वयं मानवीयतापूर्ण स्वभाव ही वैभव है। इसलिए अमानवीयता का, मानवीयता पूर्वक अथवा मानवीयता की विधि से परिवर्तन होना सहज है, क्योंकि अमानवीयता को कोई भी मानव (जो अमानवीय रहता है वह भी) नहीं स्वीकारता जबकि मानवीयता को हर व्यक्ति स्वीकारता है।

मानवीयता के खोल में ही, अमानवीयता पनपती हुई देखने को मिल रही हैं। ऐसा मजबूर होने का एक ही कारण है, परंपरा में मानवीयता का जीता जागता प्रमाण, बोध गम्य होने योग्य ज्ञान, दर्शन सुलभ न होना। इसे ऐसा भी एक सर्वेक्षण किया जा सकता है कि किसी भी नशाखोर व्यक्ति से विधिवत् किसी मुद्दे पर ज्ञानार्जन, विवेकार्जन विधि से बात करें, तब हम यह पाएँगे कि नशा किया हुआ व्यक्ति भी नशा नहीं किया हुआ जैसा प्रस्तुत होना चाहता है। एक चोर, डाकू से विवेक और व्यवस्था संबंधी चर्चा कर देखें तो हम यही पाते है कि चोरी-डकैती करते हुए उसी के पक्ष में व्यवस्था व विवेक को उपयोग करते हुए नहीं मिलता है। अपितु, इसके विपरीत जो भी करते रहता है, किया रहता है उसी की निरर्थकता को बार-बार दोहराते रहता है। इसी प्रकार लाभोन्मादी, कामोन्मादी व भोगन्मादियों से व्यवस्था और विवेक प्रयोजन विधि से विधिवत् चर्चा करके हम यह पाते है कि सभी उन्माद निरर्थक है। इसी प्रकार आज के राजनेताओं से इस मुद्दे पर चर्चा करके देखें कि वोट, नोट, बँटवारा, संतुष्टि, असंतुष्टि कब तक चल सकती है? इससे स्वस्थ व्यवस्था मिल सकती है क्या? इस पर वे कहते है कि “सबकी संतुष्टि हो नहीं सकती, इस बीच में झेलते रहना ही राजनीति है।” इन सभी वर्गों के साथ बात करने पर उनकी यह स्वीकारोक्ति है कि उन-उन कार्यों की बड़ी मजबूरी रही है, लेकिन ये सारे “उचित काम” नहीं हैं।

इन लोगों से पूछा गया कि ये ठीक नहीं है तो करते क्यों हो? इस पर वे कहते है कि “इसके अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं हैं।” इसी प्रकार युवा पीढ़ी से पूछा गया कि, “जो कुछ भी आप लोग कर रहे है, सोच रहे है- नशाखोरी, जमाखोरी, जिम्मेदारी-विहीन कार्य