भौतिकवाद

by A Nagraj

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इन सबको देखने के उपरान्त इन सबकी उपज क्या हुई? यह पूछने पर मानव समुदाय से यह उत्तर मिला कि ज्यादा से ज्यादा समस्या, ज्यादा से ज्यादा अव्यवस्था। ऐसे हर व्यक्ति से मानव पंरपरा के लिए यह अव्यवस्था विरासत में मिली। और अभी सर्वाधिक लोग इसी खाते में है । इसी को यथा स्थिति कहा गया। जबकि इस प्रवाह में बहने वाला हर व्यक्ति परिवर्तन चाह रहा है। उक्त विश्लेषण से इस प्रमाण को आज हर दिन देखा जा रहा है, सुना जा रहा है कि आहार, विहार, व्यवसाय, उपार्जन, संग्रह के लिए सभी लोग अवांछनीय कर्म करते हैं। यह सब उपक्रम, प्रक्रिया, प्रवृत्ति, समुदाय चेतना के अनुसार प्रदत्त रहना, प्रमाणित हो चुकी । इसमें व्यवस्था कहीं देखने-सुनने को नहीं मिली। अस्तु, भोगवादी आदर्श जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है तथा विरक्तिवादी-भक्तिवादी आदर्श, इन दोनों उपक्रमों से एक अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था नहीं मिली। भौतिकवादी तर्क संगत सभी तत्व, मीमांसा, ज्ञान मीमांसा मानवीयता से दूर रह गया हैं। इतना ही नहीं निरर्थक, अपराधिक, हिसंक, बेहोशी और भ्रम को बढ़ाने वाले सिद्घ हो गये। यह तो पक्का पता लग चुका है कि भ्रम और बेहोशी, व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी का सूत्र और व्याख्या अथवा इसके सहायक सिद्घ नहीं होते।

व्यवस्था में भागीदारी निरंतर जागृति सहज अभिव्यक्ति है जागृत रहना है। जागृति का प्रमाण प्रस्तुत करना ही है। उस स्थिति में हर मानव का यही कर्त्तव्य होता है कि बेहोशी अथवा बेहोश होने के लिए जो उपक्रम है उससे मुक्ति पाया जाये। जैसे- स्वस्थ रहना है, उस स्थिति में सारे अस्वस्थता के उपक्रमों को उपचार करना बनता है। उसी भाँति बेहोशी, नशाखोरी, यौवन, यौन, संग्रह, उन्माद ये सब अव्यवस्था के कारक हैं। यह समझ में आने की स्थिति में स्वाभाविक रूप में अव्यवस्थावादी हर क्रियाकलाप प्रवृतियाँ अपने आप में निरर्थक, अपराधिक है। इसीलिए समाधानात्मक भौतिकवाद में जीवन ज्ञान सहज प्रकाश में, अस्तित्व दर्शन का स्वरुप मानवीयतापूर्ण आचरण की मौलिकता को अध्ययनगम्य कराना-करना प्रमाणित हैं। इसकी रोशनी में सहज ही, सभी अव्यवस्थाएँ अनावश्यक सिद्घ हो जाएँगी और व्यवस्था प्रमाणित होना सहज है।

मानव संस्कृति में आहार अर्थात् खान-पान एक प्रधान मुद्दा है। मानवीयता पूर्ण संस्कृति में एकता का अथवा अखण्ड समाज के सूत्र चार हैं :- संस्कृति, सभ्यता, विधि