भौतिकवाद

by A Nagraj

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ऊपर कहे मानव संचेतना, मानव परंपरा में ही, मानव सहज मानवीयता, मानवीयता सहज मौलिकता, मौलिकता सहज मूल्यांकन, मूल्यांकन सहज उभय तृप्ति का कार्यक्रम ही मानव परंपरा का संरक्षण और नियंत्रण का प्रमाण हैं। ऐसी प्रमाण संपन्न स्थिति में और गति में व्यवस्था केन्द्र बिंदु हैं। व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए ही संपूर्ण आयामों का तर्क संगत विधि से निर्णय लेना एक आवश्यकीय कार्य हैं। यह भी सहज रूप में देखा गया है कि मानव बहुआयामी अभिव्यक्ति हैं। इन सबके मूल में अर्थात् सभी आयामों में व्यक्त होने के मूल में समाधानगामी विधि हैं। दूसरी भाषा में व्यवस्था मूलक विधि, व्यवस्थागामी विधि है, दो मूल रुपों के आधार पर ही मानव का नियंत्रित होना स्पष्ट हो जाता है। समाधान मूलक अथवा समाधान केन्द्रित विधि से समाज के रूप में, अखण्ड समाज ख्यात होता हैं। अखण्ड समाज और सार्वभौम व्यवस्था ही, मानव परंपरा का संरक्षण और नियंत्रण सहज प्रमाण है।

व्यवस्था विहीन कार्यक्रम से नियंत्रित होना भी संभव नहीं है। इस दशक तक के मानव ने इसी अव्यवस्था के लिए कुछ किया। असुरक्षा, असंतुलन, परंपरा को हर समुदाय जितना द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्घ को बुंलद कर सकते थे, कर गए, शेष समुदायों को इसी में फँसा ले गए। यही आदि मानव और आज के अत्याधुनिक मानव मानस को तौलने की कसौटी है। अब रही बड़ी-बड़ी सड़कें, यान, वाहन, दूरसंचार कितने भी प्रकार से स्वचालित यंत्रों को बना लिए है, प्रौद्योगिकी को समर तंत्रों में समावेश कर लिए हों, इन सबका सर्वाधिक उपयोग द्रोह-विद्रोह, शोषण और युद्घ के लिए ही मनुष्य करते हुए देखने को मिलता है और यह आंकलित हो रहा है, आंकलित कर सकते हैं।

मानवीयता पूर्ण व्यवहार, व्यवस्था, संविधान, शिक्षा-संस्कार के साथ-साथ आहार, विहार, व्यवहार, व्यक्तित्व और प्रतिभा में संतुलन को प्रमाणित करने के लिए अति आवश्यक है। व्यवहार, मानवीय आचरण के रूप में, व्यवस्था में भागीदार होने के रूप में स्पष्ट व नियंत्रित, संतुलित हो जाता है। व्यवस्था में भागीदारी, व्यवहार में संबंधों व मूल्यों को निर्वाह करना, व्यवस्था के लिए पूरक होता हैं। व्यवस्था में भागीदारी प्रधानत: न्याय-सुरक्षा, उत्पादन-कार्य और विनिमय-कोष कार्यों में भागीदारी हैं। इसके अतिरिक्त भी प्रत्येक मानव आहार-विहार करता ही है।